Book Title: Kashay
Author(s): Hempragyashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

Previous | Next

Page 167
________________ कषाय और कर्म जो साधक कषाय रूपी शत्रुओं को जीत लेता है, इन्द्रिय-विषयों को जीत लेता है, वह हजारों शत्रुओं को जीतकर निरापद हो जाता है। उत्तराध्ययन में८३ केशीश्रमण ने गौतम स्वामी से प्रश्न किया है, 'हे गौतम! अनेक सहस्र शत्रुओं के मध्य आप खड़े हो। वे आपको जीतने के लिए दौड़ते हैं? फिर भी आपने उन शत्रुओं को कैसे जीत लिया?' यहाँ हजारों शत्रुओं से तात्पर्य कषाय के हजारों भेद हैं। __मूल में क्रोध, मान, माया, लोभ – ये चार कषाय हैं। सामान्य जीव एवं चौबीस दण्डकवर्ती जीव, इन २५ के साथ प्रत्येक कषाय को गुणा करने पर प्रत्येक के १०० भेद एवं चार कषाय के ४०० भेद होते हैं। क्रोधादि के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन के भेद से १६ भेद हैं। इन १६ कषायों को २५ से गुणा करने पर ४०० भेद होते हैं। आभोगनिर्वर्तित, अनाभोग-निर्वर्तित, उपशान्त, अनुपशान्त अवस्था की अपेक्षा क्रोधादि के १६ भेद हैं.५ एवं इन्हें पूर्वोक्त से २५ गुणा करने पर ४०० भेद होते हैं। आत्मप्रतिष्ठित, परप्रतिष्ठित, तदुभयप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित, इस प्रकार क्रोधादि के १६ भेद हुए।१८६ इन १६ को २५ से गुणा करने पर ४०० भेद हुए। क्षेत्र, वास्तु, शरीर, उपधि आदि की अपेक्षा क्रोधादि के १६ भेद हैं, इन्हें २५ से गुणा करने पर ४०० भेद हुए। कारण का कार्य में उपचार करने से कषायों के प्रत्येक के ६-६ भेद होते हैं यथा चय, उपचय, बन्धन, वेदना, उदीरणा और निर्जरा। इन छः भेदों को भूत, भविष्य और वर्तमानकाल के साथ गुणा करने से १८ भेद हो जाते हैं। इन १८ भेदों को एक जीव तथा अनेक जीवों की अपेक्षा, दो के साथ गुणा करने से ३६ भेद होते हैं। इनको क्रोधादि चारों कषायों के साथ गुणा करने पर १४४ भेद होते हैं। इनको पूर्वोक्त २५ से गुणित करने पर कुल ३६०० भेद हुए। पूर्वोक्त ४००+४००+४००+४००+३६०० को मिलाने पर चारों कषायों के कुल ५२०० भेद हो जाते हैं। १८८ १८३. उत्तराध्ययनसूत्र/२३/३५ १८४. प्रथम कर्मग्रन्थ १८५. स्थानांग/४/१/८८ १८६. स्थानांग/४/१/७६ १८७. वही/४/१/८० १८८.उत्तराध्ययन प्रियदर्शिनी टीका/गा. ३/ पृ. ९१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192