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कषाय और कर्म
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कर्म मुझे दुःख देते हैं, वह यह सोचता है, मेरे दोष ही मुझे दुःख देते हैं अतः इन्हीं से मुझे मुक्त होना है।
(स) विपाकविचय- पूर्वकर्मों के फलस्वरूप उदयगत सुख-दुःखात्मक विभिन्न परिस्थितियों का चिन्तन। कर्मस्वरूप का चिन्तन।
(द) संस्थानविचय- लोकस्वरूप अथवा शरीर स्वरूप का चिन्तन। अनासक्ति-वृद्धि होती है, आसक्ति टूटती है। ४. शुक्लध्यान : स्वरूप रमणता
जिस समय उपयोग में से कषाय हट जाता है. ज्ञान-दर्शन आदि गुण रागादिमय नहीं अपितु आत्मस्वरूप चिन्तनमय बन जाते हैं, उपयोग परपरिणति से हटकर स्व-परिणति में लग जाता है, वह शुक्लध्यान है। उपयोग में जितना कषायांश है, जीव कषाय में रमता है, वह पर-परिणाम है तथा उपयोग में जब मात्र ज्ञानधारा है, वह स्व-परिणाम है।
___ शुक्लध्यानी ज्ञाता दृष्टा भावरूप अप्रमत्तावस्था में रहता है, जहाँ न कषाय क्रियाशील रहते हैं और न उससे उत्पन्न ईर्ष्या, द्वेष, विषाद आदि भाव ही उत्पन्न होते हैं। वह संज्वलन कषाय के विपाक को ही मात्र देखता है, जानता है किन्तु उन भावों से प्रभावित नहीं होता है। कषाय उपशान्ति एवं कषाय क्षय की अवस्था शुक्लध्यान है।
___ शुक्लध्यान के चार भेद हैं-१७५ (अ) पृथक्त्ववितर्क सविचार (ब) एकत्ववितर्क निर्विचार (स) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती (द) समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति।
स्थानांगसूत्र में शुक्लध्यान के चार लक्षण बताये गये हैं-१७६ (क) परीषह, उपसर्ग आदि से व्यथित न होना (ख) किसी प्रकार का मोह उत्पन्न न होना (ग) भेद ज्ञान (घ) शरीरादि के प्रति ममत्वभाव का पूर्ण त्याग – इसे अव्यय, असम्मोह, विवेक एवं व्युत्सर्ग कहा गया है। स्वरूप के साथ चित्त का अनुसंधान होने पर चित्त में पड़े तृष्णा, राग, द्वेष और मोह आदि के संस्कार उखड़ जाते हैं। स्वरूप बोध के बिना हुआ एकाग्र चित्त निमित्त मिलने पर पुनः क्षुब्ध हो जाता है और राग, द्वेष, मोह से अभिभूत होकर अपना चंचल स्वभाव पुनः प्रकट कर देता है। मोह का आधार स्वरूप की विस्मृति है, शुक्लध्यान स्वरूप की रमणता है, अतः अकषाय स्वभाव का प्रकटीकरण हो जाता है। १७५. (अ) स्थानांगसूत्र/४/६९ (ब) तत्त्वार्थ०/९/४१ १७६. स्थानांगसूत्र/४/६०
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