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कषाय और कर्म
१२५.
पर भोजन नहीं मिला, रात्रि को मच्छरों का उपद्रव हुआ, गर्मी का विशेष अनुभव हुआ, शय्या स्वच्छ नहीं मिली, स्नान-सुविधा नहीं मिली आदि अनेकानेक विपरीतताओं में कषायोदय हो जाता है। कायक्लेश तपयुक्त साधक प्राकृतिक आपदाओं में, शारीरिक कष्टों में, चित्त के प्रतिकूल प्रसंगों में मन को कषायमुक्त रखता है तथा समता में स्थिर रहता है।
(६) प्रतिसंलीनता या विविक्तशय्यासनः कषायोदय निरोध कषाय, इन्द्रिय और योग संलीनता के भेद से इसे प्रतिसंलीनता तप कहा गया है। १५९ स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि से रहित श्मशान, गिरि-गुफा आदि एकान्त स्थानों में निवास करना विविक्तशय्यासन तप है। १६०
इन्द्रियों को विषयों में जाने से रोकना, मन-वचन-काया की प्रवृत्ति को संकुचित करना एवं क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय को उदित न होने देना- प्रतिसंलीनता तप है। कषाय का निमित्त मिलने पर जागरूकतापूर्वक भावों पर नियन्त्रण रखना। विचारों को विचारों से बदल देना, अकषाय स्वभाव का चिन्तन कर कषाय को उभरने न देना, प्रतिसंलीनता है।
आभ्यन्तर तप (१) प्रायश्चित : कषाय का विसर्जन प्रमादजनित दोषों और अपराधों का शोधन कर स्वयं के अपराध का दण्ड लेना प्रायश्चित है। १६१ अतः कहा है जो पाप का छेदन करता है, जिससे पापों की विशुद्धि होती है, वह प्रायश्चित तप है। १६२ विभाव दशा में भाव-रमणता के अपराध का अहसास कर स्वभाव-दशा में लौटना, इसे प्रतिक्रमण भी कहा गया है। १६३ अनादिकालीन-कषाय संस्कारों का उदय, कषाय-नोकषाय मोहनीय-कर्म का उदय कुछ क्षणों के लिए साधक को प्रमत्तावस्था के आधीन बना देता है; किन्तु जैसे सूर्य बादलों को चीर कर पुन: गगन-मण्डल में चमकने लगता है; उसी प्रकार साधक कषाय-बादलों को हटाकर पुनश्च आत्म-गगन में विहरण करने लगता है। जीव की स्थिति के अनुसार दोष अनेक प्रकार के हैं- मिथ्यात्व जनित दोष, अनन्तानुबन्धी कषायजनित दोष, अप्रत्याख्यानावरण कषायजनित दोष, प्रत्याख्यानावरण कषायजनित दोष और संज्वलनकषायजनित दोष। विवेक जाग्रत होने पर अतिक्रमण से पुनः प्रतिक्रमण करना, अशुभ योग से शुभ एवं शुद्ध योग की ओर लौटना प्रायश्चित तप है। १५९. भगवतीसूत्र/२५/७/८०२
१६२. आचारांग/१/५/४ १६०. उत्तराध्ययनसूत्र/३०/२८
१६३. स्थानांग/३/४४८ १६१. पंचाशक/१६/३
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