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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
किया था। वह युवक अनाथी मुनि नाम से प्रसिद्ध हुआ एवं राजा श्रेणिक का धर्म प्रतिबोधक बना। १२४
(३) संसार- चतुर्गति स्वरूप का चिन्तन। तिर्यंचगति में क्षुधा, तृण्णा, ताड़ना, तर्जना आदि की पीड़ा एवं नरक गति में क्षेत्रजन्य, परमाधामीदेवों द्वारा प्रदत्त तथा परस्परकृत वेदनाएँ करनी पड़ती हैं। १२५ मनुष्यगति में जन्म, जरा, मृत्यु की वेदना से गुजरना पड़ता है और देवगति में सामग्री की अल्पता अधिकता के कारण ईर्ष्या, दुःख, द्वेष की आग में जीव झुलसता है। एक भी गति में पूर्णतया सुख नहीं है, अत: संसार से मुक्त होने का प्रयास हो - इस भावना से चिन्तन।
(४) एकत्व- शुद्धात्मा स्वरूप की एकलता का चिन्तन। दाह-ज्वर से पीड़ित नमि राजा'२७ ने रानियों को आज्ञा दी, 'यह चन्दन घिसना बंद करो। यह शोर मुझे नहीं सुहाता।' वातावरण शान्त होने पर पुनः प्रश्न किया, क्या चंदन घिसना बंद हो गया।' प्रत्युत्तर मिला, 'नहीं स्वामिन्! एक सुहाग कंकण छोड़कर अन्य चूड़ियाँ उतार दी गई हैं। अतः आवाज नहीं आ रही।' नमि राजा चिन्तन में डूब गए, एक में शान्ति है, आनन्द है। दो में द्वन्द्व है, दुःख है। मूल स्वरूप में जीव अनन्त सुख का वेदन करता है, कर्मसंयोग में दुःख पीड़ित होता है। एकत्व भावना का चिन्तन कर नमि राजा वैराग्यवासित हए।
(५) अन्यत्व- आत्मा से कषाय की भिन्नता का चिन्तन ।
कषाय मेरा स्वभाव नहीं है। शरीर से मेरा एकत्व संबंध नहीं है। कर्मसहित होना मेरा मूलस्वरूप नहीं है। कषाय, कर्म, शरीर, परिवार को अन्य मानकर आत्मस्वरूप का चिन्तन।
(६) अशुचि- राग के निमित्तभूत शरीर की अपवित्रता का चिन्तन। १२८ अशुचि पदार्थों का उद्भव स्थान यह देह स्वयं में अशुचिरूप है। इसकी अपवित्रता किसी भी उपाय के द्वारा नहीं हो सकती। शरीर का आदिकारण शुक्र और शोणित है, शरीर-पोषण का कारण आहार है। आहार शरीर में जाते ही विकृत रूप हो जाता है, वह खल-भाग और रस-भाग में परिवर्तित होता है। खल-भाग के द्वारा मूत्र और विष्ठना आदि; रस-भाग के द्वारा रक्त, माँस, मेदा, अस्थि हड्डी, मज्जा आदि समस्त अशुचि पदार्थों का आधार शरीर है। इस देह १२४. उत्तराध्ययनसूत्र/अ. २०/गा. २ १२७. उत्तराध्ययन सूत्र/ अ. ९ १२५. तत्त्वार्थसूत्र/अ. ३/सू. ४
१२८. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम/अ. ९/सू. ७ १२६. उत्तराध्ययन सूत्र/अ. १४/गा. ४
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