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कषाय और कर्म
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को कितना भी कपूर आदि सुगन्धित पदार्थों से युक्त जल से स्नान कराया जाए; चंदन, कस्तूरी, केशर आदि उत्तमोत्तम पदार्थों का लेप किया जाए; पुष्पमाला आदि पहनाई जाए - सभी द्रव्य दुर्गन्ध रूप में रूपान्तरित हो जाते हैं। ऐसे अशुचिमय शरीर के प्रति क्या राग करना? यही उद्बोधन मल्लिकुमारी ने छह राजाओं को दिया था। १२९
(७) आस्रव- आत्मरूपी सरोवर में पाँच आस्रव नालों से निरन्तर अष्ट कर्मरूपी जल भर रहा है। प्रशस्त व अप्रशस्त कार्यों से पुण्य व पाप करता हुआ, जीव स्वप्रदेशों में कर्म-परमाणुओं को आमन्त्रित करता है। इसके भूलभूत कारण हैं- मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग। १३. इन कर्मास्रवों का चिन्तन करना।
(८) संवर- आत्म-भवन में ज्ञान-दर्शन सुख रूप.अक्षय निधि को लूटने वाले कषाय-लुटेरों का पथ अवरुद्ध कर देने वाले भावों का चिन्तन संवर अनुप्रेक्षा है। चिलाती पुत्र एक हाथ में तलवार, एक हाथ में सुषमा का कटा हुआ सिर लिये जंगल में दौड़ते हुए एक मुनि के पास पहुँचा। भय से धड़कते हृदय से पूछा- 'मुनि! मुक्ति का मार्ग क्या है?' मुनि ने कहा- 'उपशम, विवेक, संवर।' १३१ चिलाती पुत्र तलवार एवं सिर फेंक कर ध्यानस्थ खड़ा हो गया एवं संवर भावना के चिन्तन में लीन हो गया। अधर्म से धर्म की ओर उस आत्मा का प्रयाण हो गया।
(९) निर्जरा- जिन भावों, जिन प्रक्रियाओं से आत्मा में संचित कर्म एवं कषाय क्षय होते हैं, उनका चिन्तन निर्जरा अनुप्रेक्षा है।
(१०) लोक- कषायात्मा के क्षेत्र का चिन्तन। सकषायी जीवों का आवागमन का स्थान कहाँ तक है तथा अकषायी जीवों का स्थान कौन-सा है? आदि विचारणा करना।
(११) बोधिदुर्लभ- सम्यक्त्व में बाधक अनन्तानुबन्धी कषाय के स्वरूप का चिन्तन।
(१२) धर्मस्वाख्यात- कषायरहित धर्म स्वरूप का चिन्तन करना।
परीषहजय- साधना-मार्ग में आने बाली अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में राग-द्वेष न करना परीषहजय है। १३२ परीषह के बाईस प्रकार
१२९. श्री कल्पसूत्र/महावीर चरित्र १३०. तत्त्वार्थसूत्र/अ. ८ सू. १ ।
१३१. योगशास्त्र अ. १ १३२. उत्तराध्ययन सूत्र/अ. २
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