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कषाय और कर्म
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निर्जरा के दो प्रकार हैं-१३७ (१) अकाम एवं (२) सकाम। समय-समय पर कर्म उदय में आकर फल देकर खिर जाते हैं, वह अकाम-निर्जरा है। ऐसी निर्जरा संसारी प्राणियों को प्रत्येक समय हो रही है; पर राग द्वेष कषाय-भावधारा के प्रवाह के कारण आस्रव भी होता रहता है। वस्तुतः सम्यक् सकाम निर्जरा वह है, जहाँ कषाय-भाव-धारा का विवेकपूर्वक संवरण हो जाता है तथा भीतर में बन्धी कषाय-ग्रन्थियों के टूटने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।
तत्त्वार्थसूत्र में निर्जरा का कारण तप बताया गया है। १३८ आचारांगसूत्र में कहा गया है,-१३९ तप एक प्रकार की अग्नि है, जिसके द्वारा संचित कर्मों को शीघ्र ही भस्मीभूत किया जा सकता है। जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालती है, वैसे ही आत्मसमाधिस्थ और अनासक्त आत्मा कर्म शरीर को शीघ्र जला डालती है। 'तवेण परिसुज्झई'तप आत्मा के परिशोधन की प्रक्रिया है।
विवेकपूर्वक किया गया तप मुक्ति प्रयाण में प्रगतिशील बनाता है। 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' कहकर साधना में बाधक बन जाए- इस प्रकार साधक शरीर को सुविधाशील नहीं बनाता तथा 'देह हमारा दुश्मन है, इसके कारण संसार-परिभ्रमण करना पड़ता है ऐसा मानकर चित्त में रही वासना, कषाय आदि वृत्तियों का उन्मूलन किए बिना मात्र काया को उत्पीड़ित नहीं करता।" तप का मूल उद्देश्य मन में रही काषायिक वृत्तियों का उन्मूलन होता है। ज्ञानी कहते हैं- जहाँ क्रोध, लोभ आदि काषायिक भावों को समाप्त करने का लक्ष्य नहीं, ऐसा उपवास तप नहीं; अपितु लंघन है। १४२ साधक के लिए सच्चा कुरुक्षेत्र उसका स्वयं का मन है। उसमें रही दुर्वृत्तियों और कुवासनाओं रूपी कौरवों को समाप्त किए बिना मुक्ति रूपी हस्तिनापुर नहीं पाया जा सकता।
___ वास्तव में आत्मज्ञान अर्थात् काया में एकत्व बुद्धि एवं चित्त की तरंगों से ऊपर उठकर स्वभाव में स्थित होना, सम्यक् तप है। यही कर्म-निर्जरा का सबल साधन है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए ही 'तप्यते अनेन इति तपः' अर्थात् जिसके द्वारा तपाया जाए, वह तप है, कहा गया है। सम्यग्ज्ञानरूपी चक्षु के धारक मुनि के द्वारा कर्म-कषायरूपी मैल को दूर करने के लिए जो तपा जाता है, उसे तप कहते हैं। १३७. समयसार/पृ. ३८९ १३८. तत्त्वार्थसूत्र/अ. ९/सू. ३ १३९. आचारांगसूत्र/१/४/३ १४०. उत्तराध्ययनसूत्र/अ. २८/गा. ३५ १४१. ज्ञानसार तपोष्टक श्लोक ७ १४२. अध्यात्मसार आत्मनिश्चयाधिकार/श्लोक १५७
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