Book Title: Kashay
Author(s): Hempragyashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

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Page 153
________________ कषाय और कर्म ११७ चार भेद-११६ दान, शील, तप, भावना एवं दस लक्षण- ११७ अमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य एवं ब्रह्मचर्य बताये गये हैं। परिग्रह, मैथुन, आहार एवं भय संज्ञा १८ के टूटने से दान, शील, तप भावना गुण प्रकट होते हैं। क्रोध के अभाव से क्षमा गुण, मान के अभाव से मार्दव गुण, माया के अभाव से आर्जव गुण एवं लोभ के अभाव से शौच गुण प्रकट होता है। १९ अज्ञानान्धकार नष्ट होने पर सत्य एवं विषय सेवन की अभिलाषा समाप्त होने पर संयम गुण आविर्भूत होता है। समस्त रागादि परभावों की इच्छा के त्यागरूप स्व-स्वरूप में प्रतपन करने से तप धर्म एवं सम्पूर्ण पर-द्रव्यों से मोह छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीन रूप परिणाम होना त्यागधर्म है। १२१ आभ्यन्तर बाह्य परिग्रह का त्यागकर आकिञ्चन्य एवं पर-द्रव्यों से रहित शुद्ध-बुद्ध अपने आत्मस्वरूप में लीन होने से ब्रह्मचर्य होता है। १२२ । मूल में रागादि भावों का त्याग, कषाय-वृत्तियों का परित्याग ही आत्मधर्म का शुद्ध रूप है। ____ अनुप्रेक्षा- रागादि भावों को शिथिल करने हेतु वस्तु स्वरूप का चिन्तन करना, अनुप्रेक्षा है। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य एवं माध्यस्थ – ये चार अनुप्रेक्षाएँ मोह की प्रगाढ़ता समाप्त कर मैत्री भाव के विस्तार हेतु बताई गई हैं। तत्त्वार्थसूत्र आदि में अनुप्रेक्षा के बारह प्रकार बताए गए हैं। जो निम्नलिखित हैं-१२३ (१) अनित्य- राग-द्वेष के पात्र रूप संयोगों की अनित्यता का चिन्तन। इसी चिन्तन से भरत महाराजा ने केवलज्ञान प्राप्त किया था। (२) अशरण- जन्म, जरा, मरणादि से रक्षण हेतु सांसारिक संयोगों की असमर्थता का चिन्तन। शिरोवेदना से पीड़ित युवक ने जब स्वजन, परिजन, चिकित्सक आदि सभी को हताश-निराश देखा तो स्वयं को जगत में अनाथ मानकर जगतपिता परमेश्वर को नाश-रूप स्वीकार कर तपोमार्ग अंगीकार ११६. तत्त्वज्ञान प्रवेशिका/ पृ. २४ १२०. प्रवचनसार/गा. ७९ ११७. (अ) आचारांगसूत्र/२/१६ १२१. द्वादशानुप्रेक्षा/गा. ७८ (ब) तत्त्वार्थसूत्र/९/६ १२२. अनगार धर्मामृत/४/६० ११८. उत्तराध्ययन/३१/६ १२३. (अ) तत्त्वार्थसूत्र/अ. ९/सू. ७ ११९. धर्म के दस लक्षण/पृ. २३-५८ (ब) आत्म-वैभव/अ. ५-१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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