Book Title: Kashay
Author(s): Hempragyashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

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Page 151
________________ कषाय और कर्म ११५ रहता। यद्यपि यहाँ शुभ का अर्थ पुण्यास्रव या पुण्यबन्ध के रूप में नहीं है। द्रव्यानुयोग में संवर से तात्पर्य शुद्ध भावभूमिका से ग्रहण किया गया है।०६ जितनी-जितनी आत्मरमणता, उतना-उतना संवर। पर-परिणमता का अभाव संवर है। अपने ज्ञान में ज्ञाता ही ज्ञेय बन जाए -- वह आस्रवनिरोध की अवस्था है। आस्रव और बंध को रोकने के लिए संवर एक अमोघ अस्त्र है। इस संवररूपी कवच को पहनकर कषायरूपी शत्रुओं को जीता जा सकता है। उपदेश रहस्य में कहा गया है-१०७ जिससे व्यक्ति राग-द्वेष से मुक्ति पा सके, वही जिनाज्ञा अनुसार आचरण है। जैन दर्शन में संवर के दो भेद हैं- (१) द्रव्य संवर और (२) भाव संवर। द्रव्यसंग्रह में कहा गया है- आत्मा की अकषाय अवस्था भाव संवर है एवं उससे रुकनेवाला कर्मास्रव द्रव्य संवर है। सामान्य रूप से संवर के पाँच अंग बताये गये हैं-१८ (१) सम्यक् दृष्टिकोण, (२) विरति, (३) अप्रमत्तता, (४) अकषायवृत्ति, क्रोधादि मनोवेगों का अभाव और (५) अक्रिया। स्थानांगसूत्र में पंच इन्द्रिय एवं त्रियोग संयम की अपेक्षा आठ प्रकार का संवर बताया गया है। १०९ तत्त्वार्थसूत्र में संवर के सत्तावन भेद माने गये हैं, जो निम्नाङ्कित हैं-११० (१) तीन गुप्ति, (२) पाँच समिति, (३) दस-धर्म, (४) बारह अनुप्रेक्षा, (५) बाईस परीषहजय ; और (६) पाँच चारित्र। गुप्ति- 'संसार कारणात् आत्मनः गोपनं गुप्तिः' संसार के कारणों से आत्मा की जो सुरक्षा करती है- वह गुप्ति है। 'गुप् गोपने संरक्षणे वा गुप् धातु संरक्षण अर्थ में भी प्रयुक्त होती है। मन-वचन-काया की स्थिरता मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति कहलाती है। ११ जब आत्मतत्त्व में कषाय, राग-द्वेषादि भावों की चंचलता शान्त हो जाती है, तो त्रियोग स्थिरता सहज सध जाती है। १०६. तत्त्वसार/गा. ५५ १०७. उपदेश रहस्य/गा. २०१ १०८. समवायांगसूत्र/५/५ १०९. स्थानांगसूत्र/८/३/५९८ ११०. तत्त्वार्थसूत्र/अ. ९/सू. २ १११. (अ) वही/ अ. ९/सू. ४ (ब) आचारांगसूत्र/२/१/७/३९-४० (स) उत्तराध्ययन/अ. २४/गा. २०-२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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