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कषाय और कर्म
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मैनासुन्दरी ने प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा"शीलं च दानं विनयो विवेकः, सद्धर्मगोष्ठिः प्रभुभक्ति पूजा। अखण्ड सौख्यं च प्रसन्नता हि, पुण्येन चैतत्सकलं लभेत्।।"
शील पालन, दान, विनय, विवेक, सद्धर्मगोष्ठी, प्रभुभक्ति पूजा, अखण्ड सुख, प्रसन्नता - यह सब पुण्य से प्राप्त होता है। मैनासुन्दरी की दृष्टि में बाह्य वैभव नहीं, सद्गुण वैभव प्रमुख हैं, अतः पुण्य के दो प्रकार हैं-(१) लौकिक पुण्य, (२) लोकोत्तर पुण्य। इसे भौतिक पुण्य एवं आध्यात्मिक पुण्य भी कहा जा सकता है।
संवर : कषाय का संवरण अनादिकालीन राग, द्वेष और मोह के माध्यम से आत्मा में आने वाले कर्मों के आस्रवरूपी प्रवाह को आत्मरमणता रूप पुरुषार्थ से संवरन करना संवर है। कषाय का संवर भाव-संवर एवं कर्म का संवर द्रव्य-संवर कहलाता है। १६ तत्त्वसार में कहा है- जो जीव अपने अकषाय स्वभाव को नहीं छोड़ता है और पर-पदार्थरूप परिणत नहीं होता है, अपने आत्म-तत्त्व का मनन, चिन्तन और अनुभवन करता है, वह जीव निश्चय से संवर करता है।
सम उपसर्गपूर्वक वृ धातु से संवर शब्द निर्मित होता है। वृ धातु रोकने अथवा निरोध के अर्थ में प्रयुक्त होती है। अतः कहा है-८ 'आस्रव निरोधः संवरः' आस्रव का निरोध संवर है। 'संवृणोति कर्म अनेनेति संवरः' अर्थात् जिसके द्वारा आने वाले नवीन कर्म रूक जाएँ, वह संवर है। आचारांग का कहना है, विषय कषायों का निरोध करने वाला साधक कर्मरहित होकर ज्ञाता-दृष्ट बन जाता है। हिंसादि आस्रव द्वारों से निवृत्त उस साधक के जन्म-मरणादि रूप दुःखमार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। उस दुःखमार्ग का निरोध करने के लिए सर्वप्रथम कषायों को समझना और देखना आवश्यक है। आचारांग का सूत्र है-१०
'जे कोहदंसी से माणदंसी; - जे माणदंसी से मायदंसी जे मायदंसी से लोभदंसी; जे लोभदंसी से पेज्जदंसी, जे पेज्जदंसी से दोसदंसी जे दोसदंसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी से गब्भदंसी; जे गब्भदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदंसी; जे मारदंसी से णिरयदंसी,
जे णिरयदंसी ते तिरियसी; जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी।' ९६. योगसार/संवराधिकार/गा. १, २ ९९. आचारांग सूत्र/१/५/६ ९७. तत्त्वसार/गा. ५५
१००. वही/१/३/४/१३० ९८. तत्त्वार्थ/अ. ९/सू. १
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