Book Title: Kashay
Author(s): Hempragyashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

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Page 150
________________ ११४ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन जो क्रोधदर्शी होता है, वह मानदर्शी होता है; जो मानदर्शी होता है, वह मायादर्शी होता है; जो मायादर्शी होता है, वह लोभदर्शी होता है, जो लोभदर्शी होता है, वह रागदर्शी होता है; जो रागदर्शी होता है, वह द्वेषदर्शी होता है; जो द्वेषदर्शी होता है, वह मोहदर्शी होता है; जो मोहदर्शी होता है, वह गर्भदर्शी होता है; जो गर्भदर्शी होता है, वह जन्मदर्शी होता है; जो जन्मदर्शी होता है, वह मृत्युदर्शी होता है; जो मृत्युदर्शी होता है, वह नरकदर्शी होता है; जो नरकदर्शी होता है, वह तिर्यंचदर्शी होता है; जो तिर्यंचदर्शी होता है, वह दुःखदर्शी होता है। अतः वह मेघावी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, मोह, गर्भ, जन्म, मृत्यु, नरक, तिर्यंच और दुःख को दूर भगा दे। जो कषाय का स्वरूप समझ जाता है, उससे होने वाली हानियाँ समझ जाता है, वह कर्म एवं कर्म से प्राप्त होने वाली समस्त दुःखात्मक परिस्थितियों को समझ जाता है, जो दुःख को दुःख समझ जाता है, वह दुःख निरोध के मार्ग में उद्यत हो जाता है। अतः सर्वप्रथम कषाय-भावों को समझकर उनका वमन करना है। कहा है-०१ स वंता कोहं च माणं च मायं च, लोभं च – सत्यार्थी साधक क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन (त्याग) कर देता है। वह एक कषाय को जानकर सब कषाय को जान जाता है। १०२ एक कषाय को झुकाकर अथवा शिथिल बनाकर सबको शिथिल बना देता है। १०३ 'एग विगिंचमाणे पुढो विगिंचइ, पुढो विगिंचमाणे एगं विनिंचई १० एक को पृथक् करने वाला अन्य को भी पृथक् कर देता है, अन्य को पृथक् करने वाला एक को पृथक् कर देता है। एक कषाय को जीतने वाला समस्त कषायों को जीत लेता है तथा समस्त कषायों को जीतने वाला एक को तो पूर्व में जीत ही लेता है। साथ ही कषाय को जीतकर कर्मों को आत्मा से पृथक् कर देता है और दुःख का निरोध कर देता है। उत्तराध्ययनसूत्र में संवर के स्थान पर संयम को ही आस्रव-निरोध का कारण माना गया है। १०५ शुभ अध्यवसाय भी संवर के अर्थ में स्वीकार किए गए हैं, क्योंकि अशुभ की निवृत्ति के लिए शुभ का अंगीकार प्राथमिक स्थिति में आवश्यक है। वृत्ति शून्यता के अभ्यासी के लिए प्रथम शुभवृत्तियों को अंगीकार करना होता है, क्योंकि चित्त के शुभवृत्ति से परिपूर्ण होने पर अशुभ के लिए कोई स्थान नहीं १०१. आचारांगसूत्र/गा. १/उ. ४/सू. १२८ १०४. आचारांगसूत्र/१/३/४/१२९ १०२. वही/१/३/४/१२९ १०५. उत्तराध्ययनसूत्र/अ. २९/गा. २६ १०३. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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