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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
पुण्य दो प्रकार का है-(१) द्रव्य पुण्य, (२) भाव पुण्य। ३ पुण्यकर्म द्रव्यपुण्य है, शुभ भाव मन्द कषाय भाव पुण्य है। पुण्य एवं पाप दो-दो प्रकार के वृत्ति-प्रवृत्ति के आधार से होते हैं, जो निम्नांकित हैं
(१) पुण्यानुबन्धी पुण्य- वृत्ति और प्रवृत्ति दोनों के शुभ होने पर पुण्यानुबन्धी पुण्य होता है। जैसे सेवा का भाव एवं सेवा रूप प्रवृत्ति दोनों का समन्वय होना। ऐसे पुण्य का उदय होने पर बाह्य वैभव एवं आत्मिक वैभव दोनों की प्राप्ति होती है।
(२) पापानुबन्धी पुण्य- वृत्ति अशुभ एवं प्रवृत्ति शुभ होने पर पापानुबन्धी पुण्य होता है। जैसे भीतर यश-प्रतिष्ठा का लोभ है एवं बाहर सेवा कार्य है। इस पुण्य का उदय होने पर बाह्य समृद्धि प्राप्त होती है; किन्तु उसका सदुपयोग करने की वृत्ति जागृत नहीं होती।
(३) पुण्यानुबन्धी पाप- वृत्ति शुभ एवं प्रवृत्ति अशुभ होने पर पुण्यानुबन्धी पाप होता है। आत्मा में उदासीन परिणाम हों एवं क्रिया में हिंसा आदि कुकृत्य से जुड़ना पड़े - ऐसी स्थिति में पुण्यानुबन्धी पाप का बन्ध होता है। इस कर्मोदय से बाह्य प्रतिकूलता, अन्तरंग में सहज-शान्ति दिखाई देती है।
(४) पापानुबन्धी पाप- वृत्ति एवं प्रवृत्ति दोनों अशुभ हों। आत्मिक भावों में तीव्र काषायिक परिणति एवं बाह्य क्रिया में काषायिक प्रवृत्ति हो। इस पाप के उदय से बाह्य क्षेत्र में प्रतिकूलताएँ एवं अन्तरंग जगत में कषाय की मलिनता दृष्टिगोचर होती है।
___ अतः वास्तव में शुभ भाव एवं शुभ क्रिया दोनों का समन्वय ही उत्कृष्ट पुण्य है। श्रीपालचरित्र में महाराजा प्रजापाल का प्रश्न है- 'पुण्येन किं किं लभ्यते"५ – पुण्य से क्या-क्या प्राप्त होता है? सुरसुन्दरी एवं मैनासुन्दरी दोनों ने एक ही प्रश्न का उत्तर भिन्न-भिन्न अपेक्षा से दिया है- सुरसुन्दरी की दृष्टि में बाह्य वैभव प्रमुख है, अतः वह उत्तर देती है
"प्राज्यं च राज्यं सुभगः सुभर्ता, नीरोगगात्रं च पवित्र ज्यं । गानं च भृत्यं परिवार वर्गः, पुण्येन चैतत् सकलं लभेत्।।"
विशाल राज्य, सौभाग्य, श्रेष्ठ वर, स्वस्थ शरीर, पवित्र भोजन, गीत-गान, नौकर-चाकर, परिवार वर्ग सब पुण्य से प्राप्त होते हैं।
__ ९५. श्रीपालचारित्र
९३. योगसार बन्धाधिकार ९४. तत्त्व प्रवेशिका पृ. ३५
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