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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
एक दिन बड़ा भाई भोजन कक्ष के बाहर खड़ा था। अचानक बहन का स्वर सुनाई दिया, 'भाभी हाथ साफ रखा करो।' भाई विचार में डूब गया, 'क्या मेरी पत्नी की चोरी की आदत है ? बहन असत्य नहीं बोल सकती।' रोती- कलपती पत्नी को पीहर भेजने के लिए उद्यत देखकर बहन ने कहा- 'भाई! मैं तो शिक्षा मात्र दे रही थी।' इसी तरह दूसरे भाई को सुनाते हुए बहन ने कहा, 'भाभी! साड़ी पर दाग नहीं लगना चाहिए।' भाई सोचने लगा, 'क्या मेरी पत्नी व्यभिचारिणी है ? नहीं, ऐसी पत्नी नहीं चाहिए ।' भाई के विचार जानकर बहन ने कहा- 'भैया! मैं तो मात्र हितशिक्षा दे रही थी।' इस मायामृषावाद के परिणामस्वरूप दूसरे भव में सर्वांगसुन्दरी पर चोरी एवं दुराचार का कलंक लगा।
मायामृषावाद का सेवन कर जीव पाप बन्ध करता है। मिथ्यात्व - शल्य को समस्त पापों का मूल बताया गया है। मिथ्यात्व भाव का शल्य रूप में आत्मा की गहराइयों में प्रविष्ट होना - मिथ्यात्व शल्य है । सब अनिष्टों की जड़ मिथ्या श्रद्धा है।
( १ ) धर्म में अधर्म संज्ञा, (३) मार्ग में कुमार्ग संज्ञा, (५) जीव में अजीव संज्ञा, (७) साधु में असाधु संज्ञा, (९) मुक्त में अमुक्त संज्ञा,
स्थानांगसूत्र में मिथ्यात्व के दस रूपों का उल्लेख किया गया है - ५ (२) अधर्म में धर्म संज्ञा, (४) कुमार्ग में मार्ग संज्ञा, (६) अजीव में जीव संज्ञा, (८) असाधु में साधु संज्ञा, (१०) अमुक्त में मुक्त संज्ञा ।
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संज्ञा का अर्थ यहाँ मानना, समझना या नाम देना है। इसी सन्दर्भ में सूत्रकृतांग में कहा गया है - " 'लोक - अलोक, जीव-अजीव, धर्म-अधर्म, बन्धमोक्ष, पुण्य-पाप, आस्रव संवर, वेदना - निर्जरा, क्रिया-अक्रिया, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, चतुरन्त संसार, देव-देवी, सिद्धि-असिद्धि, सिद्धि का निजस्थान, साधु-असाधु, कल्याण- पाप नहीं है- ऐसी संज्ञा कभी नहीं करनी चाहिए किन्तु निश्चित रूप से मानना चाहिए कि लोक- अलोक यावत कल्याण- पाप आदि सब विद्यमान हैं। जो उपर्युक्त तत्त्वों के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वह सम्यग्दृष्टि है और जो इनका नास्तित्व मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है ।
पुण्य तत्त्व के बन्ध में कारणभूत मन्दकषाय परिणति है। भगवतीसूत्र में अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ प्रवृत्तियों को पुण्योपार्जन का कारण
८५. स्थानांगसूत्र /स्था. १० /उ. १ / सू. ७३४ ८६. सूत्रकृतांगसूत्र/श्रु. स्क. २/अ. ५ /गा. १२ से १८
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