Book Title: Kashay
Author(s): Hempragyashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

Previous | Next

Page 145
________________ कषाय और कर्म १०९ ८२ साहित्य में नौ रसों का विवेचन है । २ नौ रसों के नौ स्थायी भाव हैं'रतिहसिश्च - शोकश्च' शृंगार रस का स्थायी भाव रति है । यहाँ रति आनन्द अर्थ में है। रति अर्थात् प्रिय संयोग में आनन्द का वेदन एवं अरति अर्थात् अप्रिय संयोग में अरुचि भाव । अनन्तकाल से जीव ने अनन्त धारणाएँ बना रखी हैं। पुरानी धारणाएँ टूटती हैं, नवीन धारणाएँ बनती हैं; किन्तु अनन्तानुबंधी कषाय के सद्भाव में समस्त धारणाएँ मिथ्या / विपरीत होती हैं । वस्तु की सम्यक् स्वरूप दृष्टि में न होने के कारण समस्त मान्यताएँ / धारणाएँ परिवर्तित होने पर भी मिथ्या होती हैं। पशु के जीवन में घास प्रिय लगता है, मनुष्य के जीवन में पकवान्न प्रिय प्रतीत होते हैं; किन्तु ज्ञानियों की दृष्टि में पदार्थ स्वयं में न इष्ट हैं, न अनिष्ट हैं। सुख अथवा दुःख वस्तु या व्यक्ति से नहीं है; अपितु हमारी कल्पनानुसार है। साध्वी विचक्षणश्री जी समता की ऐसी श्रेणी पर आरूढ़ थीं, जहाँ न रतिभाव उभरता था, न अरतिभाव । " कई बार आहार में कड़वी ककड़ी का शाक आने पर वे अधिकाधिक शाक अपने पात्र में ले लेती। बिना किसी अरति भाव के सहजतया पदार्थ उपभोग कर लेतीं। यदि श्रद्धा-भक्तिवश किसी ने सरस आहार उन्हें परोस दिया, तब भी वे शान्तचित्त से ग्रहण कर लेतीं और कहतीं, 'चलो ! पेटलादपुर में डाल दें।' रतिभाव की एक रेखा भी नहीं दिखाई देती । साधक रति-अरति के परिणामों से ऊँचा उठ जाता है, अज्ञानी / तीव्र कषायी जीव रति -अरति के परिणामों में झूलता हुआ पाप बन्ध करता है। (१७-१८) मायामृषावाद एवं मिथ्यात्व शल्य-अठारह पाप-स्थानकों में माया एवं मृषावाद - दोनों स्वतन्त्र भेद रूप से वर्णित हैं। दोनों की संयुक्त रूप मायामृषावाद. भी एक पाप-स्थानक है। कभी माया कषाय हो; किन्तु वचन प्रयोग न हो, कभी मृपावाद हो; किन्तु सहसत्कार हो । मायामृषावाद में माया एवं मृषावाद दोनों का समन्वय होता है। यह पाप - स्थानक बुद्धिमान मायावी ही सेवन कर सकता है । असत्य को सत्य रूप दे देना, पाप को छिपा लेना, गलत होते हुए अच्छे होने का ढोंग करना माया मृषावादी का कार्य है । साध्वी सर्वांगसुन्दरी पूर्वभव में युवा वय में विधवा हुई । भाइयों का बहन के प्रति अत्यन्त सद्भाव था; किन्तु बहन के मन में विचार उठा- 'भाइयों के प्रेम की परीक्षा करनी चाहिए। वे मुझे अधिक चाहते हैं या अपनी पत्नियों को । ' ८२. साहित्य दर्पण / नवरस विवेचन ८३. जैन कोकिला / जीवन चरित्र Jain Education International ८४. कथा साहित्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192