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कषाय और कर्म
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साहित्य में नौ रसों का विवेचन है । २ नौ रसों के नौ स्थायी भाव हैं'रतिहसिश्च - शोकश्च' शृंगार रस का स्थायी भाव रति है । यहाँ रति आनन्द अर्थ में है। रति अर्थात् प्रिय संयोग में आनन्द का वेदन एवं अरति अर्थात् अप्रिय संयोग में अरुचि भाव ।
अनन्तकाल से जीव ने अनन्त धारणाएँ बना रखी हैं। पुरानी धारणाएँ टूटती हैं, नवीन धारणाएँ बनती हैं; किन्तु अनन्तानुबंधी कषाय के सद्भाव में समस्त धारणाएँ मिथ्या / विपरीत होती हैं । वस्तु की सम्यक् स्वरूप दृष्टि में न होने के कारण समस्त मान्यताएँ / धारणाएँ परिवर्तित होने पर भी मिथ्या होती हैं। पशु के जीवन में घास प्रिय लगता है, मनुष्य के जीवन में पकवान्न प्रिय प्रतीत होते हैं; किन्तु ज्ञानियों की दृष्टि में पदार्थ स्वयं में न इष्ट हैं, न अनिष्ट हैं। सुख अथवा दुःख वस्तु या व्यक्ति से नहीं है; अपितु हमारी कल्पनानुसार है।
साध्वी विचक्षणश्री जी समता की ऐसी श्रेणी पर आरूढ़ थीं, जहाँ न रतिभाव उभरता था, न अरतिभाव । " कई बार आहार में कड़वी ककड़ी का शाक आने पर वे अधिकाधिक शाक अपने पात्र में ले लेती। बिना किसी अरति भाव के सहजतया पदार्थ उपभोग कर लेतीं। यदि श्रद्धा-भक्तिवश किसी ने सरस आहार उन्हें परोस दिया, तब भी वे शान्तचित्त से ग्रहण कर लेतीं और कहतीं, 'चलो ! पेटलादपुर में डाल दें।' रतिभाव की एक रेखा भी नहीं दिखाई देती । साधक रति-अरति के परिणामों से ऊँचा उठ जाता है, अज्ञानी / तीव्र कषायी जीव रति -अरति के परिणामों में झूलता हुआ पाप बन्ध करता है।
(१७-१८) मायामृषावाद एवं मिथ्यात्व शल्य-अठारह पाप-स्थानकों में माया एवं मृषावाद - दोनों स्वतन्त्र भेद रूप से वर्णित हैं। दोनों की संयुक्त रूप मायामृषावाद. भी एक पाप-स्थानक है। कभी माया कषाय हो; किन्तु वचन प्रयोग न हो, कभी मृपावाद हो; किन्तु सहसत्कार हो । मायामृषावाद में माया एवं मृषावाद दोनों का समन्वय होता है। यह पाप - स्थानक बुद्धिमान मायावी ही सेवन कर सकता है । असत्य को सत्य रूप दे देना, पाप को छिपा लेना, गलत होते हुए अच्छे होने का ढोंग करना माया मृषावादी का कार्य है ।
साध्वी सर्वांगसुन्दरी पूर्वभव में युवा वय में विधवा हुई । भाइयों का बहन के प्रति अत्यन्त सद्भाव था; किन्तु बहन के मन में विचार उठा- 'भाइयों के प्रेम की परीक्षा करनी चाहिए। वे मुझे अधिक चाहते हैं या अपनी पत्नियों को । '
८२. साहित्य दर्पण / नवरस विवेचन ८३. जैन कोकिला / जीवन चरित्र
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८४. कथा साहित्य
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