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कषाय और कर्म
(५) श्रोत्रेन्द्रिय- सपेरे की बीन बजने से मुग्ध बना सर्प पुनः जहर चूसने चला आता है, संगीत लहरियों से मंत्रमुग्ध हुआ हरिण भागना भूल जाता है और पकड़ा जाता है। ये बंधन, वेदना, मृत्यु बाह्य अवस्थाओं से सम्बन्धित हैं; किन्तु आत्म-जगत् में इस लोभ कषाय से वशीभूत हुआ जीव अनन्त कर्म परमाणुओं का आस्रव करता है। ___इन्द्रिय विषयों से सम्बन्धित ये कुछ उदाहरण शास्त्रों में विषयाभिलाषा से होने वाली हानियाँ समझाने के लिए दिए गए हैं। वैले सम्पूर्ण जगत में समस्त अज्ञानी जीव इन विषय-वासनाओं के चक्र में ही घूम रहे हैं। इन विषयों का मूल कारण भीतर में पड़ी आसक्तियाँ हैं। लोभ कषाय से जीव अधिकाधिक विषय सेवन करना चाहते हैं, पाँचों इन्द्रियों के विषयों का भोग करना चाहते हैं। ग्रीष्मकाल हो, प्यास से गला सूख रहा हो उस समय यदि कोई शीतल जल दे दे तो स्पर्शेन्द्रिय सन्तुष्ट हो जाती है। यदि उस शीतल जल में शक्कर घुली हो, तो रसेन्द्रिय, यदि सुगन्धित द्रव्य इत्र डाला हो तो घ्राणेन्द्रिय; यदि लाल, हरा रंग डाला गया हो तो चक्षुरिन्द्रिय एवं यदि वहाँ संगीत का आयोजन हो तो श्रोत्रेन्द्रिय भी तृप्ति का अहसास करने लगती है। लोभ एवं मान को पुष्टि मिलती है; किन्तु पदार्थ-उपयोग के क्षणों में जितनी-जितनी चित्त की आह्लादपूर्ण स्थिति है, आसक्ति का संबंध होने से उतना-उतना कर्म का आस्रव है। अतः इन्द्रियाँ साम्परायिक आस्रव के भेद के अन्तर्गत ली गई हैं।
क्रियाएँ- कषायजन्य कौन-कौन-सी क्रियाएँ जीवन व्यवहार में विशेषतया दृष्टिगत होती हैं, उनके आधार पर क्रियाएँ पच्चीस बताई गई हैं
(१) सम्यक्त्व क्रिया- शुभरागपूर्वक देव-गुरु-धर्म के प्रति व्यवहार। (२) मिथ्यात्व क्रिया- सरागी देव की स्तुति-उपासना आदिरूप। (३) प्रयोग क्रिया- गमनागमन में कषाययुक्त प्रवृत्ति। (४) समादान क्रिया- बाह्य त्याग किन्तु भोगवृत्ति की ओर झुकाव। (५) ईर्यापथ क्रिया- गमनागमन क्रिया। (६) कायिकी क्रिया- द्वेषभाव से युक्त क्रिया। (७) आधिकरणिकी क्रिया- हिंसाकारी साधनों को ग्रहण करना। (८) प्रादोषिकी क्रिया- क्रोध के आवेश से होने वाली क्रिया। (९) पारितापनिकी क्रिया- प्राणियों को सताना।
४८. (अ) नवतत्त्व प्रकरण (ब) तत्त्वार्थ अ. ६/सू. ६
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