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कषाय और कर्म
कार्मण-वर्गणाओं के परमाणुओं का आकर्षित होना, आस्रव है।६ यद्यपि आस्रव में योग भी एक कारण है, किन्तु योग से होने वाला कर्मबन्ध एक समयवर्ती होता है, वह सूखी दीवार पर फेंके गए लकड़ी के गोले के समान है, जो दीवार का स्पर्श करके तुरन्त धरती पर गिर पड़ता है। इसे ईर्यापथिक कर्म कहते हैं। कषायोदय से होने वाला कर्मबन्ध चिकनाई से सने वस्त्र पर चिपकने वाली धूल के समान होता है। इसे साम्परायिक कर्म कहते हैं। यह कर्म कषाय की तीव्रता या मन्दता के अनुसार अधिक या अल्पस्थिति वाला होता है और यथासम्भव शुभाशुभ विपाक का कारण भी।
साम्परायिक आस्रव के निम्नलिखित भेद बताए गए हैं-३८ (१) पाँच अव्रत (२) चार कषाय (३) पाँच इन्द्रियाँ (४) पच्चीस क्रियाएँ।
अव्रत ३९ (१) प्राणातिपात अर्थात् हिंसा (२) मृषावाद अर्थात् असत्य (३) अदत्तादान अर्थात् चोरी (४) मैथुन अर्थात् अब्रह्मसेवन (५) परिग्रह अर्थात् संग्रह में मूर्छा।
इन पाँचों अव्रतों के कार्य में कारण रूप क्रोध, मान, माया एवं लोभ आदि भाव ही हैं। द्वेष के वशीभूत हो हिंसा, लोभ एवं मान कषाय की प्रबलता से असत्य, चोरी, अब्रह्म सेवन एवं संग्रह में जीव की प्रवृत्ति होती है। कषाय।
जब क्रोध, मान, माया और लोभ प्रवृत्ति/क्रिया में दिखाई देता है तब अन्तरंग में इन कषायों का सद्भाव होता है। यदि बाहर में क्रोधाभिव्यक्ति हो एवं भीतर में क्रोध की अधिकता न होकर हितभावना हो, तो कर्मास्रव अल्प होगा।
इन्द्रियाँ स्पर्शेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय एवं श्रोत्रेन्द्रिय- इन्द्रियाँ पाँच हैं।” स्पर्श, रस, गन्ध, रूप एवं शब्द इनके मुख्य बाह्य विषय हैं। आत्मा या चेतना इन्द्रियों के माध्यम से इन्हें ग्रहण करती है, स्पर्शानुभूति करती है, चखती है, सूंघती है, देखती है और सुनती है। विषय ग्रहण करना इन्द्रिय का स्वभाव है एवं गृहीत विषयों के प्रति मूर्छा करना चेतना का कार्य है। ३६. योगसार/आस्रवाधिकार श्लो. १, २ (स) नवतत्त्व दीपिका/गा. २१ ३७. (अ) तत्त्वार्थसूत्र अ. ६/सू. ५ ३९. उत्तराध्यापन/अ. ३१/गा. ७ (ब) आचारांग/१/९/१
४०. वही। ३८. (अ) तत्त्वार्थसूत्र/अ. ६/सू. ६ ४१. तत्त्वार्थ अ. २/सू. १५
(ब) प्रश्नव्याकरण/आस्रव द्वार ४२. वही/अ. २/सू. २१
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