Book Title: Kashay
Author(s): Hempragyashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

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Page 139
________________ कषाय और कर्म तब जीव काम-वासना के भावों से प्रभावित हो जाता है। मात्र स्पर्शेन्द्रिय ही नहीं अपितु पंचेन्द्रियों के विषय में जब तीब्र कामराग/भोगेच्छा होती है,६२ तब उसे भोगविलास कहा जाता है। किन्तु मैथुन एक क्रिया-विशेष है। इस आसक्ति को पाप स्थानक/ पापबन्ध का कारण बताया गया है। - (५) परिग्रह- ग्रह धातु ग्रहण अर्थ में प्रयुक्त होती है। परिसमन्तात अर्थात् चारों तरफ से संग्रह करना - परिग्रह है। कहा गया है, मूर्छा परिग्रह है।६३ संचय में गाढ़ आसक्ति - परिग्रह है। परिग्रह दो प्रकार का बताया गया है-६४ (१) बाह्य; और (२) आभ्यन्तर। क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य आदि नौ प्रकार का बाह्य परिग्रह है एवं मिथ्यात्व क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तीन वेद चौदह प्रकार का आभ्यन्तर परिग्रह है। इस प्रकार कषायों को परिग्रह संज्ञा दी गई है। दशवैकालिक के अनुसार आसक्ति ही वास्तविक परिग्रह है। ६५ वास्तव में तृष्णा के कारण संग्रह एवं संग्रह में आसक्ति होती है। आसक्ति परिग्रह का मूल है एवं परिग्रह पाप का मूल है। आचारांग में कहा है-६६ 'अर्थलोभी व्यक्ति परिग्रह की पूर्ति हेतु दूसरों का वध करता है, उन्हें कष्ट देता है तथा अनेक प्रकार से यातनाएँ पहुँचाता है।' अतः परिग्रह पाप है। (६-९) क्रोध, मान, माया और लोभ-क्रोधादि कषाय-चतुष्क का स्वरूप विवेचन द्वितीय अध्याय में हो चुका है। यहाँ पाप-बन्ध के अठारह कारणों में इस चतुष्क का उल्लेख हुआ है। यद्यपि हिंसा, असत्य आदि समस्त पाप-स्थानकों के मूल में ये चारों कषाय निहित हैं; किन्तु यहाँ पर इन्हें स्वतन्त्र रूप से काषायिक प्रवृत्ति के रूप में लिया गया है। क्रोध-वृत्ति जब प्रकट होती है, तब क्रोध-प्रवृत्ति दिखाई देती है। शास्त्रों में चण्डकौशिक मुनि का दृष्टान्त आता है, जिन्होंने मेंढकी के पाँव से मर जाने पर अपना प्रमाद स्वीकार नहीं किया एवं शिष्य के पुनः-पुनः स्मरण दिलाने पर क्रुद्ध होकर उसे मारने दौड़े और मृत्यु को प्राप्त हुए। ६२. धर्म के दस लक्षण/अ. ११/पृ. १५२ ६३. तत्त्वार्थ अ. ७/सू. १२ ६४. (अ) मूलाचार/प्रथमभाग/अधि. ५/श्लो. २११ . (ब) आचारसार अधि. ५/श्लो. ६१ ६५. दशवैकालिक अ. ६/गा. २१ ६६. आचारांग/१/३/२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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