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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
अजीव के मुख्यतः पाँच भेद हैं-३२ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल और पुद्गल।
अजीव का दो भागों में वर्गीकरण किया जाता है- रूपी और अरूपी।३ पुद्गल रूपी द्रव्य है एवं अन्य सभी अजीव अरूपी द्रव्य हैं। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, कर्म आदि सब रूपी पुद्गल हैं।
जीव के रागादि भाव से कार्मणवर्गणा के पुद्गल आकर्षित होते हैं। जीवप्रदेश के क्षेत्र में रहे हए कर्म-स्कन्ध योग एवं कषाय की तरतमता के अनुसार सभी दिशाओं से आत्म-प्रदेशों में बँधते हैं। ३४
आत्मा और कर्म में संबंध कराने वाला कषाय भाव आत्मा का मूल स्वभाव नहीं है। जब आत्मा बहिर्मुखी होती है, इन्द्रियों के माध्यम से जड़ पदार्थों में चेतना व्याप्त होती है, वह विभाव दशा कहलाती है। रागादि चेतन का गुण नहीं होने के कारण जीव तत्त्व नहीं है। ये भाव जीव में होते हैं, किन्तु जीव के (स्वभावगुण) नहीं होते। इन भावों का आधार मोह है, मोह जड़ पदार्थों में होता है, अतः इन्हें भी जड़ कहा जाए तो किसी अपेक्षा से उचित है। ५ व्यक्ति के प्रति मोह है तो व्यक्ति को आत्मा नहीं अपितु शरीर के कारण मोह होता है। शारीरिक संबंधों में रागादि भाव होते हैं। शरीर भी जड़ अचेतन तत्त्व है। बाहर में इन्द्रिययुक्त शरीर है तो भीतर जगत में बुद्धि तथा उसकी विविध धारणाएँ, स्मृतियाँ, अहंकार तथा उसकी अनेक वासनाएँ, कामनाएँ, इच्छाएँ व कषायें, मन तथा इनके विविध संकल्प-विकल्प हैं। वैभाविक अवस्था में इन सबका अस्तित्व है, किन्तु जीव की स्वाभाविक अवस्था में मात्र ज्ञानादि गुणों का अस्तित्व दिखाई देता है। जैसे पानी में शक्कर डालकर अग्नि पर चढ़ाने से चाशनी बनती है। उस चाशनी में उष्णता एवं मधुरता दोनों गुण दिखाई देते हैं। कुछ समय पश्चात् चाशनी में मात्र मधुरता रह जाती है, उष्णता नष्ट हो जाती है, क्योंकि उष्णता अग्नि-संयोग का परिणाम थी। इसी प्रकार कषाय भाव चेतन का स्वभाव न होने के कारण शुद्ध जीव-तत्त्व में नहीं दिखाई देते; जीव और अजीव की संयोगावस्था में इन भावों का अस्तित्त्व रहता है। अतः ये भाव न ही जीवतत्त्व के अन्तर्गत हैं, न अजीवतत्त्व के।
आस्रव : कषाय का आगमन आ समन्तात् लवति कर्म अनेनेति आस्रवः - जिसके द्वारा चारों ओर से कर्म आते हैं, उसे आस्रव कहते हैं। आत्मप्रदेशों में कषायोदय से आने वाली ३२. वही/अ. ३६/गा. १ से ४७ ३४. तत्त्वार्थसूत्र/अ. ८/सू . २५ ३३. वही/अ. ३६.गा. ४
३५. शान्तिपथ प्रदर्शन/अ. ८/पृ. ५३
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