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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
बन्ध : कषाय का बन्धन जन्म दुःख है, मृत्यु दुःख है, रोग दुःख है, वृद्धावस्था दुःख है; इस संसार में जीव ऐसे अनन्त दुःखों का वेदन करता है। दुःख का कारण क्या है? क्या देह, स्वजन, परिजन, धन, धरती दुःख के निमित्त हैं? नहीं, दुःख का कारण स्वयं की काषायिक वृत्तियाँ हैं। जन्म, जरा, मृत्यु आदि अवस्थाओं से गुजरना बाह्य बन्धन है; आन्तरिक बन्धन स्वयं जीव के कषाय-संस्कार हैं। एक भाव को पुनः पुनः जीने पर वह संस्कार रूप बन जाता है। जैसे चोरी करने वाले के चोरी के संस्कार पुष्ट हो जाते हैं, सिगरेट पीने वाले के सिगरेट पीने की आदत मजबत हो जाती है, चाय पीने वाले का चाय पीने का अभ्यास सध जाता है, वैसे ही कषाय भावों के पुनः-पुनः आस्रव से वह कषाय-संस्कार निर्मित हो जाता है?
मिथ्यात्व, कषाय आदि के कारण आने वाले कर्म-परमाणुओं का आत्मा से बन्धना- द्रव्य बन्ध है एवं कषाय संस्कार पुष्ट होना - भावबंध है।५० भाव जगत में शुभाशुभ संस्कार की अपेक्षा से दो भेद हैं- (१) अशुभ बन्ध; और (२) शुभ-बन्ध। इन्हें पापबन्ध एवं पुण्यबन्ध भी कहा गया है। ५१
पाप-बन्ध में तीव्र कषाय परिणति से होने वाली प्रवृत्ति कारणभूत है। शास्त्रों में पाप-बन्ध के अठारह स्थानक कारण बताए गए हैं-५२ (१) प्राणातिपात (२) मृषावाद (३) अदत्तादान (४) मैथुन (५) परिग्रह (६) क्रोध (७) मान (८) माया (९) लोभ (१०) राग (११) द्वेष (१२) कलह (१३) अभ्याख्यान (१४) पैशुन्य (१५) रति-अरति (१६) परपरिवाद (१७) मायामृषावाद; और (१८) मिथ्यात्व शल्य।
(१) प्राणातिपात- प्राण + अति + पात = प्राणातिपात। प्राण गिराना अर्थात् प्राण विनष्ट करना। कहा है, प्रमत्तयोगात् प्राण व्यपरोपणं हिंसाः। ३ प्रमादयोग से प्राण समाप्त करना हिंसा है। इस सूत्र में मुख्य शब्द है, प्रमाद योग। प्रमाद के बिना हो जाने वाली हिंसा भी हिंसा नहीं है एवं प्रमत्तावस्था में बाह्य रूप से हिंसा न होने पर भी हिंसा का दोष लगता है। प्रमाद की मूलाधार राग-द्वेष वृत्ति है। अतः मूल में राग-द्वेषादि भावों को भावहिंसा कहा ५०. (अ) योगसार/बन्धाधिकार/गा. १ (ब) तत्त्वसार/गा. ५२ ।। ५१. योगसार बन्धाधिकार/गा. २ ५२. (अ) जैन कर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन/पृ. ३५-३६ (ब) स्थानांगसूत्र स्थान १८
(स) उत्तराध्ययन/अ. २८/गा. १५ की टीका ५३. तत्त्वार्थ अ. ७/सू. ८
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