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कषाय और कर्म
__ आचारांग, भगवती२, दशवैकालिक'३, तत्त्वार्थ आदि ग्रन्थों में आत्मा/ जीव का लक्षण ज्ञान बताया गया है।
शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से वह जीव न लम्बा है, न छोटा है, न गोल है, न त्रिकोण है, न चौकोर है और न ही मण्डलाकार है। वह न कृष्ण है, न नील है, न लाल है, न पीत है और न ही शुक्ल है। वह न सुगन्धयुक्त है और न दुर्गन्धयुक्त है। वह न तिक्त है, न कटु है, न कषाय है, न आम्ल है और न मधुर है। वह न कर्कश है, न मृदु है, न गुरु है और न ही लघु है। वह न शीतल है, न उष्ण है, न स्निग्ध है और न ही रूक्ष है। वह न शरीरवान है, न ही जन्मधर्मा है और न ही संगयुक्त है। वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है। वह न शब्द है, न रूप है, न गन्ध है, न रस है और न स्पर्श ही है।५ वह जीव न छेदा जाता, न भेदा जाता, न जलाया जाता और न मारा जाता है। १६ वह अनादि, अनिधन, अविनाशी, अक्षय, ध्रुव और नित्य है।
तत्त्वसार में शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से स्वजीव तत्त्व के विषय में देवसेन कहते हैं-१८ 'जिसके न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ है, न शल्य है, न कोई लेश्या है और न जन्म, जरा और मरण भी है, वही निरंजन मैं हूँ।'
शुद्ध द्रव्यदृष्टि से जीव में क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि विकारों का अभाव है। पर्याय दृष्टि से संसारी जीव राग-द्वेषादि भावों से युक्त है। आचारांग-सूत्र में कहा गया है- 'व्यक्ति में जो अहंकार है, जैसे- 'मैंने किया', 'मैं करता हूँ' 'मैं करूँगा' यह जीव का कर्तृत्वभाव है। माया कषाययुक्त जीव की स्थिति बताते हुए कहा है-२० 'मायावी और प्रमादी जीव बार-बार गर्भ में अवतरित होता है और जन्म-मरण करता है।'
जैनागमों में विभिन्न पक्षों की अपेक्षा से आत्मा को आठ प्रकार का कहा गया है-२१
१. द्रव्यात्मा-मूल स्वरूप की अपेक्षा।
२. कषायात्मा-क्रोध, मान, माया आदि कषायों से युक्त जीव की अवस्था विशेष। ११. आचारांग/१/५/५
१७. भगवतीसूत्र ९/६/३/८७ १२. भगवती/१२/१०
१८. तत्त्वसार/गा. १९ १३. दशवैकालिक/९/३/११
१९. आचारांग/१/१/११ १४. तत्त्वार्थ
२०. आचारांग/१/३/१ १५. आचारांग १/५/६
२१. भगवतीसूत्र/१२/१०/४६७ १६. आचारांग १/३/३
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