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षष्ठम् अध्याय कषाय और तत्त्व
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'तस्य भावस्तत्त्वम', 'तत्त्वौ भावे इति त्व प्रत्ययः', तत् शब्द सर्वनाम है और सर्वनाम शब्द सामान्य अर्थ का वाचक होता है। जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है, उसका उस-रूप होना तत्त्व है। तत्त्वसार में तत्त्व का अर्थ अस्तित्वयुक्त पदार्थ बताया गया है। प्रत्येक पदार्थ में पृथक्-पृथक् धर्म रहता है। जिस धर्म के अनुसार पदार्थ का निश्चय किया जाता है, उस धर्म को तत्त्व कहते हैं।
तत्त्वनिरूपण जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित है। तत्त्व के कहीं नौ एवं कहीं सात भेद बताये गये हैं। कहा है,
"जीवाजीवा य बंधो य, पुण्णं पावासवो तहा।
संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव।।" तत्त्व नौ होते हैं- जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा १. सर्वार्थसिद्धि/अ. १/सू. २
(ब) दर्शाभृत/गा. २० २. तत्त्वसार/गा. १ पृ. ४
५. नवतत्त्व/गा. १ ३. सम्यग्दर्शन अ. ३/पृ. २२७
६. उत्तराध्ययन/अ. २८/गा. १४ ४. (अ) योगशास्त्र/प्र. १/श्लोक १७
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