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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
और मोक्ष। कई ग्रन्थों में सात तत्त्वों का उल्लेख है; यथा - 'जीवाजीवास्रबन्धसंवरनिर्जरा मोक्षास्तत्त्वम्।' जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष पुण्य-पाप का आस्रव में अन्तर्भाव हो जाता है। शुभ कर्मों का आगमन पुण्यास्रव और अशुभकर्मों का आगमन पापास्रव है, तथा शुभकर्मों का बन्ध पुण्यबन्ध और अशुभकर्मों का बन्ध पापबन्ध कहलाता है।
मुख्यतया जीव और अजीव, इन दो तत्त्वों में समस्त तत्त्वों का समावेश हो जाता है। आस्रव, बन्ध एवं पाप कषाय-परिणामों के स्वरूप एवं संवर, निर्जरा तथा मोक्ष कषाय-क्षय के फलस्वरूप निर्मित अवस्थाएँ हैं। ये आत्मा की अशुद्धि-शुद्धि, ह्रास-विकास की सूचक हैं। अत: इन तत्त्वों को हेय, ज्ञेय, उपादेय- रूप में तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।'
ज्ञेय - जीव, अजीव, हेय - आस्रव, बन्ध, पाप, उपादेय - संवर, निर्जरा, मोक्ष। पुण्य तत्त्व मोक्ष की अपेक्षा हेय एवं पाप की अपेक्षा उपादेय तत्त्व है।
जीव जब धन आदि अचेतन पदार्थों में सुख-शान्ति खोजता है, रागादि विकल्प करता है, तब अजीव/कर्म के साथ संयोग होता है। कर्म का आगमन आस्रव एवं कर्म का बन्धन बन्ध तत्त्व के अन्तर्गत कहलाता है। कषायमन्दता पुण्य एवं कषाय तीव्रता पाप रूप अवस्था है। जब जीव स्व-पर भेदविज्ञान करके विकल्प उत्पन्न करने वाले कर्मों/संस्कारों को आने से रोकता है एवं पूर्वबद्ध संस्कारों को काटता चला जाता है, तब संवर एवं निर्जरा तथा मोह-क्षय की अवस्था में मोक्षतत्त्व होता है। इस तरह तत्त्वों के दो खण्ड हैं - एक कषायउत्पादक और दूसरा कषाय निवारक।
अब हम इस अध्याय में तत्त्वों में कषाय-स्वरूप पर विचारणा करेंगेजीव : स्वभाव और विभावदशा बृहद्-द्रव्यसंग्रह में जीव का लक्षण बताते हए कहा है-१० ___“जीवो उवओगमयो, अमुत्ति कत्ता सदेह परिमाणो,
भोत्ता संसारत्यो, सिद्धो सो विस्सोड्ढगई।" जो जीता है, उपयोगमय है, अमूर्त्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण है, भोक्ता है, संसार में स्थित है, सिद्ध है और स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करता है, वह जीव है। ७. तत्त्वार्थ सूत्र/अ. १/सू. ४
९. वही ८. तत्त्वज्ञान प्रवेशिका/गा. १/टी. पृ. ५ १०. बृहद् द्रव्यसंग्रह
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