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कषाय के भेद
१०. आशा - अविद्यमान पदार्थ की आकांक्षा । ११. इच्छा - परिग्रह-अभिलाषा ।
१२. मूर्च्छा - संग्रह में गाढ़ आसक्ति ।
१३. गृद्धि - परिग्रह - वृद्धि हेतु अति तृष्णा । १४. साशता - प्रतिस्पर्धा ।
१५. प्रार्थना- धन प्राप्ति की अतीव कामना ।
१६. लालसा - अभीप्सित संयोग हेतु चाहना ।
१७. अविरति - परिग्रह त्याग के भाव का अभाव ।
१८. तृष्णा - विषय - पिपासा ।
१९. विद्या-पूर्व संस्कारवश जिसका निरन्तर अनुभव हो । २०. जिह्वा - उत्तमोत्तम भोगोपभोग सामग्री के लिए जिह्वा लपलपाना । स्थानांग एवं प्रज्ञापनासूत्र में क्रोध के समान लोभ की भी चार अवस्थाएँ एवं उनकी उत्पत्ति के चार कारण बताये हैं । वस्तुतः लोभ का मूल इच्छा है। उत्तराध्ययन में भगवान् महावीर का वचन है- 'इच्छा हु आगास- समा अणंतिया' इच्छा आकाश के समान अनन्त है । स्थानांगसूत्र में कहा है- चार स्थान कभी पूर्ण नहीं होते । ( १ ) समुद्र - गंगा-यमुना जैसी अनेक महानदियों द्वारा निरन्तर अनेकों टन जल दिए जाने पर भी वह कभी इन्कार नहीं करता । ( २ ) श्मशान - असंख्य बाल, वृद्ध, युवा, स्त्री, चक्रवर्ती वासुदेव आदि अन्तिम घड़ी वहाँ पहुँचे, फिर भी वह रिक्त ही है । ( ३ ) पेट - सुबह नाश्ता किया, मध्याह्न भोजन लिया, संध्या पुनः भोजन लिया, यह क्रम प्रतिदिन होने पर भी पेट खाली का खाली है। (४) तृष्णा- पेट का गड्ढा आधा सेर अनाज डालने पर एक बार तो भर जाता है और दो-चार घण्टे संतोष धारण हो जाता है; किन्तु तृष्णा का गह्वर कितना विराट् है- सोने और चाँदी के कैलाश पर्वत की तरह असंख्य पर्वत भी किसी लोभी को दे दिए जाएँ तो भी पर्याप्त नहीं । उत्तराध्ययनसूत्र उदाहरण आता है-' - ११८ कपिल ब्राह्मण विद्याभ्यास के लिए गुरुकुल में रहने गया। गुरु ने कहा- 'वत्स! तुम्हारे निवास एवं अध्ययन की व्यवस्था आश्रम में संभावित है; किन्तु भोजन व्यवस्था हेतु किसी सद्गृहस्थ को निर्देश देना होगा।
किसी श्रेष्ठी के घर कपिल प्रतिदिन भोजन हेतु जाने लगा। गृहस्थ ने
११८. उत्तराध्ययन सूत्र -- / अ. ८
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