________________
कषाय और कर्म
बच्चों को क्रोधावेश में कहती हैं- तेरी टाँग टूट गई क्या? तेरी जीभ कट गई क्या? तेरी आँखें फूट गईं क्या? जान से मार डालूँगी! अग्नि में झोंक दूंगी! हाथ-पाँव तोड़ दूंगी।
हत्याएँ और आत्महत्याएँ- इसी कृष्णलेश्या का प्रतिफल है। इस लेश्या वाला स्वयं को खतरे में डालकर भी दूसरे को नुकसान पहुँचा सके, तो प्रसन्न होता है।
पंचतन्त्र की कथा है-“किसी आदमी की भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी ने वरदान माँगने के लिए कहा, पर इस शर्त के साथ कि पड़ौसी को उससे दुगुना मिलेगा। उस आदमी की भौहें सोच की मुद्रा में मुड़ गई। कुछ क्षण पश्चात् कहने लगा- ठीक है! मेरी एक आँख फूट जाए और मेरे घर के सामने एक कुआँ खुद जाए।" यह है कृष्णलेश्या।
गोम्मटसार में तीव्र क्रोधी, वैर-ग्रन्थि बाँधने वाला कलह-प्रिय, निर्दयी, स्वच्छन्दी, अभिमानी, मायावी, कर्तव्य-विमुख को कृष्णलेश्या परिणामी कहा
(२) नीललेश्या (तीव्रतर कषाय)- जो व्यक्ति अपने को सुरक्षित रखते हुए अन्य को हानि पहुँचाने की चेष्टा करता है, स्वार्थ-सिद्धि में सजग रहता है। ईर्ष्यालु, कदाग्रही, प्रमादी, रस-लोलुपी और निर्लज्ज होता है- वह नीललेश्या परिणामी है।
गोम्मटसार के अनुसार-१३ अति निद्रा लेने वाला, धन-संग्रह का लोभी, ठग विद्या में चतुर व्यक्ति नीललेश्या युक्त है।
जिस व्यक्ति में लोलुपता हो, कुछ-न-कुछ माँग बनी रहती हो, हर क्षण याचक बन कर खड़ा हो, मन भिखारी की तरह विषयों की भीख माँगता रहता हो, माँगने में लज्जा भी न हो, प्राप्ति की लालसा हो पर पुरुषार्थहीनता, आलस्य हो- ऐसा व्यक्ति मात्र दूसरों से ईर्ष्या ही तो कर सकता है। ईर्ष्यालु आदमी दूसरे व्यक्तियों के सुख-साधनों को देख-देख कर जलता रहता है।
नीललेश्या वाला कदाग्रही होता है अर्थात् समझाने से भी न मानना, दिखाई भी पड़ने लगे तो झुठलाना, सत्य समझ आ रहा हो फिर भी अपने विचारों को पकड़े रहना।
वह प्रमादी, आलसी, अति निद्रा लेने वाला होता है। एक धर्मशाला में ११. गो. जी./ अधि. १५/ गा. ५०९ १२. उत्तरा./ अ. ३४/ गा. २३ १३. गो. जी./ अधि. १५/ गा. ५११
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.