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कषाय और कर्म
शुद्धता के अनुरागी पद्मलेश्या परिणामी की चित्तवृत्ति प्रशान्त होती है, आसक्ति अत्यल्प होने से त्याग-वृत्ति रहती है। इन्द्रिय-विषयों से विमुखता होती है, अतः मन्दतर कषाय की स्थिति रहती है।
(६) शुक्ललेश्या (मन्दतम कषाय अथवा अकषाय)- धर्म-ध्यान, शुक्लध्यान में प्रवेश लेने वाला शुक्ललेश्या युक्त होता है। २० 'गोम्मटसार' के अनुसार पक्षपात रहित, इष्टानिष्ट संयोगों में राग-द्वेष रहित साधक शुक्ललेश्या परिणामी है। २१
पक्षपात रहित अर्थात् सत्य जैसा हो, वैसा स्वीकार करना। शुक्ललेश्या वाला पूर्व पक्षपातों, विचारों अथवा धारणाओं के अनुसार सत्य का स्वरूप प्रतिपादित नहीं करता। इष्टानिष्ट, अनुकूल-प्रतिकूल सभी संयोगों में राग-द्वेष नहीं करता। निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, पूजा-गाली, शत्रु-मित्र, रज-कंचन सभी स्थितियों में समत्व भाव में रहता है।
हस्तिनापुर नगर के बाहर राजपथ के किनारे ध्यान-मग्न एक ऋषि को देखकर पाँडवों के कदम रुक गये। यह ऋषि कौन है? ओ हो! ये तो दमदन्त राजर्षि हैं। जिन्होंने हमें युद्ध में परास्त किया था, आज वे काम-क्रोधादि शत्रुओं को पराजित कर रहे हैं। धन्य है, इनकी साधना! धन्य है, इनका तप और त्याग! !' पांडवों ने नत-मस्तक हो कर वन्दन किया, स्तुति की एवं अपने गन्तव्य की ओर बढ़ चले। कुछ ही क्षणों पश्चात् कौरवों का आगमन हुआ। वे भी रुक गये। 'ये ऋषि कौन हैं? अच्छा! ये दमदन्त राजा! युद्धक्षेत्र में हम पर कैसी बाण-वर्षा की थी। ये तो हमारे घोर-शत्रु हैं। आज अच्छा अवसर आया है - प्रतिशोध का!' सभी कौरवों ने पत्थर, कंकड़, मिट्टी उछालना प्रारम्भ किया। कुछ ही देर में तो पत्थरों का मानो चबूतरा बन गया। कौरवों के जाने के बाद जब पांडव पुनः उस राह से गुजरे तो वहाँ की स्थिति देखकर सारी घटना समझ गये। पत्थरों को हटाया, मुनि की देह पुन: निरावृत हो गई। पांडवों ने वन्दन किया और महल की दिशा में प्रस्थान कर गये। दमदन्त राजर्षि पूर्ववत् उपशान्त थे- न पांडवों के प्रति राग, न कौरवों के प्रति द्वेष। यह शुक्ललेश्या की चरम परिणति है।
यद्यपि लेश्या के असंख्यात् भेद संभावित हैं; किन्तु स्थूल-दृष्टि से लेश्या के छ: भेद बताये गये हैं। 'भाव-दीपिका' में अनन्तानुबन्धी आदि चार कषायों की अपेक्षा लेश्या के बहत्तर भेद बताये गये हैं२०. उत्तरा. अ. ३४/ गा. ३१-३२ २१. गो.जी./ अधि. १५/ गा. ५१७
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