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कषाय और कर्म
यूनानी सन्त सुकरात के लिए ज़हर घोंटा जा रहा था। एक शिष्य ने पूछा-'आपको भय नहीं लग रहा।' सुकरात ने कहा, 'ज़हर का प्याला पीना हैपी लूँगा। यदि मैं शरीर हूँ, तो ज़हर पीते ही वह विनष्ट हो जायेगा फिर भय की क्या बात है? और जैसा कि ग्रन्थों में कहा जाता है- तुम आत्मा हो। आत्मा अमर है। ज़हर का प्याला पी कर शरीर ही नष्ट होगा, आत्मा रहेगी; तो फिर भय क्या? दोनों संभावनाओं में भय को स्थान नहीं है। कापोतलेश्या वाला भयभीत, शोकाकुल रहने वाला होता है।
शोकाकुल शोक-संतप्त होना - साड़ी में चिनगारी लग गयी, फाउन्टनपेन की निब टूट गई, दूध गिर गया - बस हाल बेहाल हो गये। प्रमाद से हानि होने पर सजग रहने की प्रेरणा लेना अलग बात है और सामान्य-सी हानि में दुःखी होते रहना अलग बात है। शुभलेश्या में प्रविष्ट साधक धनहानि, मानहानि या प्राणहानि के प्रसंगों में भी सहज रह जाता है। जो होना था, हो गया। यह समय आना था, आ गया। यह घटना घटित होनी थी, हो गयी। ऐसी सहज स्थिति नहीं, अपितु शोक-संतप्त स्थिति कापोत लेश्या में रहती है। ऐसी घटना क्यों घटित हो गई' ऐसा विचार करके वह आकुल-व्याकुल बना रहता है।
(४) तेजोलेश्या (मन्द कषाय)- तेजोलेश्या को पीतलेश्या भी कहा गया है। 'उत्तराध्ययन' में तेजोलेश्या एवं 'गोम्मटसार' में पीतलेश्या शब्द प्रयुक्त हुआ है।
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार कार्य-अकार्य का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय का विवेक, नम्रता, निष्कपटता, संयम तेजोलेश्या के लक्षण हैं। १५ गोम्मटसार में महत्त्वाकांक्षा रहित प्राप्त परिस्थिति में प्रसन्न रहने की स्थिति को पीतलेश्या कहा गया है।१६
कार्य-अकार्य का ज्ञान - क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है। क्या बोलने योग्य है, क्या बोलने योग्य नहीं है। क्या देखने योग्य है, क्या देखने योग्य नहीं है। क्या सुनने योग्य है, क्या सुनने योग्य नहीं है। क्या पठन योग्य है, क्या पठन योग्य नहीं है। वह अपनी ऊर्जा को व्यर्थ नहीं गँवाता। प्रत्येक कार्य में विवेक-चक्षु का उपयोग करता है। ___महाराजा श्रेणिक अपने ज्येष्ठ पुत्र अभयकुमार को अन्तःपुर-दहन की आज्ञा दे कर चले गये। अभयकुमार विचार में खो गया। क्या यह योग्य है? तो क्या पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना योग्य है? दोनों कार्य ही उचित नहीं। अतः अन्तःपुर से महारानी आदि को सुरक्षित स्थान में भेज कर आस-पास १५. उत्तरा./ अ. ३४/ गा. २७-२८ १६. गो. जी./ अधि. १५/ गा. ५१४
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