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कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन
झोपड़ों में अग्नि लगा दी गई। ज्वालाएँ उठने लगीं, लपटें जैसे आकाश छूने लगी । महाराजा श्रेणिक भ्रम निवारण होने पर अपने अविवेक का पश्चाताप करते हुए पुनः लौटे। दहकती ज्वालाएँ देख कर मन में क्रोध ज्वाला दहक उठी; किन्तु जब महारानियों को सकुशल देखा तो अभय के विवेक से पानी-पानी हो गये ।
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तेजोलेश्या युक्त व्यक्ति शक्तिसम्पन्न होने पर भी अहंकारी नहीं, अपितु विनम्र होता है, व्यवहार में मायावी नहीं बल्कि सरल, निष्कपट होता है, सुविधा-साधन प्राप्त होने पर भी संयमी है अर्थात् मन्द कषायी होता है।
( ५ ) पद्मलेश्या ( मन्दत कषाय ) - 'उत्तराध्ययन' के अनुसार मन्दतर कषाय, प्रशान्त-चित्त, जितेन्द्रिय अवस्था पद्मलेश्या के लक्षण हैं। १७ 'गोम्मटसार' में त्याग, कष्ट - सहिष्णुता, भद्र-परिणाम, देव-गुरु-पूजा में प्रीतियुक्त चित्त पद्मलेश्या के लक्षण बताये हैं । "
देव- गुरु-पूजा जिन्होंने शुद्ध स्वरूप प्राप्त कर लिया है, जो आत्मप्रतिष्ठित हो चुके हैं, जो वीतराग, वीतद्वेष हैं - उन्हें देव तथा जो शुद्ध स्वरूप प्राप्ति के मार्ग के पथिक हैं, पंच महाव्रतधारी हैं, उन्हें गुरु कहा गया है। देवगुरु-पूजा अर्थात् शुद्ध स्वरूप की उपासना । तेजोलेश्या परिणामी को सत्य का ज्ञान होता है और पद्मलेश्या परिणामी सत्य को जीना प्रारम्भ कर देता है। वह मार्ग का ज्ञाता ही नहीं अपितु पथिक भी बन जाता है। सत्य में समाने की अभीप्सा प्रबल बन जाती है, अतः जिन्होंने सत् स्वरूप प्रकट कर लिया, उनके आलम्बन को स्वीकार करता है। श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज ने कहा है- "
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"जिनवर पूजा रे ते निज पूजना रे, प्रगटे अन्वय शक्ति परमानन्द विलासी अनुभवे रे, देवचन्द्र पद व्यक्ति ! ' देव-गुरु का उपासक अन्त में स्वयं उपास्य बन जाता है। पद्मलेश्या परिणामी देव-गुरु-पूजा में प्रीतियुक्त चित्त होता है, संसार से प्रीति अल्प हो जाती है।
महामंत्री पेथडशाह जब प्रभु-पूजा के लिए देवालय में प्रविष्ट होते थे; उसके पश्चात् पूजा के मध्य में बाहर बुलाने में स्वयं राजा भी समर्थ नहीं होते थे। महामंत्री की सख्त हिदायत थी - जब वे पूजा - गृह में हों, तब उन्हें राजाज्ञा भी न सुनायी जाये ।
१७. उत्तरा / अ. ३४ / गा. २९-३०
१८. गो. जी. / अधि. १५ / गा. ५१५ १९. श्रीमद् देवचन्द्र चौवीसी
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