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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
गति, (२) इन्द्रिय, (३) कषाय, (४) लेश्या, (५) योग, (६) उपयोग, (७) ज्ञान, (८) दर्शन, (९) चारित्र; तथा (१०) वेद। जीव के इन दस परिणामों में लेश्या, कषाय और योग सबको स्वतन्त्र रूप से ग्रहण किया गया है।
परवर्ती दार्शनिकों ने कषाय से अनुरंजित योग-प्रवृत्ति को लेश्या कहा है। लेश्या में आत्म-प्रदेशों की चंचलता का कारण योग-प्रवृत्ति एवं मलिनता का हेतु कषाय है। मूल है चेतन द्रव्य! उस पर पहला वलय है कषाय-तन्त्र का तथा दूसरा है- योग-तन्त्र का! जब कषाय की तरंगें योग-समन्वित हो कर सघन होती हुई भाव का रूप लेती हैं, तब वे लेश्या कहलाती हैं।
भावों की मलिनता एवं शुभ्रता के आधार पर लेश्या के अनेक भेद हो सकते हैं। 'भावदीपिका' में कहा गया है"- लोक के आकाश-प्रदेशों के तुल्य कषाय-भाव के उदय स्थान रूप अध्यवसाय हैं। इन्हीं के समान लेश्या के भी असंख्यात् लोकाकाश प्रमाण भेद हैं; किन्तु संक्षेप में लेश्या के छह भेद बताये गये हैं
(१) कृष्ण (२) नील (३) कापोत (४) तेजस् (पीत) (५) पद्म; और (६) शुक्ल- ये सभी लेश्याएँ द्रव्य एवं भाव दो प्रकार की होती हैं।
द्रव्यलेश्या- आत्मा द्वारा ग्रहण किए गए जो पुद्गल-परमाणु लेश्या रूप परिणमन करते हैं, उन्हें द्रव्यलेश्या कहते हैं। ये वर्ण, गंध, रस, स्पर्श सहित होते हैं। जो निम्नलिखित हैंलेश्या वर्ण
रस स्पर्श कृष्ण काजल सम काला मृत कुत्ते जैसी दुर्गन्ध अति कटु अति कर्कश नील वैडूर्य मणि सम नीला मरी गाय समान दुर्गन्ध अति तीखा खुरदरा कापोत कबूतर की ग्रीवा जैसा सड़ी लाश जैसी दुर्गन्ध कसैला कम खुरदरा तेजस् नवोदित सूर्य सम लाल गुलाब पुष्प जैसी सुगंध खट्टा-मीठा कोमल पद्म कमल पुष्प जैसा कमल पुष्प जैसी सुगंध मीठा मृदु शुक्ल शंख के समान श्वेत केवडा जैसी सुगंध अति मधुर अति मृदु ।
भावलेश्या- संसार में जितने प्राणी हैं, सबके अपने-अपने संस्कार हैं। संस्कारों के अनुसार विचार और विचारों के अनुसार अभिव्यक्ति होती है।
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गंध
६. कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या ( रा.वा. / अ. २/ सू. ६ की वृत्ति) ७. (अ) भावदीपिका | पृ. ७५
(ब) लोगाणमसंखेज्जा (गो. जी. / गा. ४९९) ८. समवाओ समवाय ६ / सू. १
उत्तराध्ययनसूत्र | अ. ३४ / गा. ४-७
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