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पंचम-अध्याय कषाय और लेश्या
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चित्त में उठने वाली विचार-तरंगों को लेश्या' कहा गया है। जैसे हवा का झोंका आने पर सागर में लहरों पर लहरें उठनी प्रारम्भ हो जाती हैं। वैसे ही आत्मा में भाव-कर्म के उदय होने पर विषय, विकार, विचारों के बवण्डर उठने लगते हैं। यही लेश्याएँ हैं।
जिनके द्वारा आत्मा कर्म-लिप्त होती हैं, उन्हें स्थानांग-वृत्ति में लेश्या कहा है।' लेश्या के स्वरूप निर्धारण से सम्बन्धित तीन मत हैं
(१) लेश्या योग-परिणाम है; २ (२) लेश्या कर्म-परिणाम है; ३ (३) लेश्या कषाय-परिणाम है।'
'स्थानांग' एवं 'प्रज्ञापना' में जीव के दस परिणाम निरूपित हैं-५ (१.) १. (अ) लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या (स्थानांग वृत्ति, पत्र २९)
(व) लिंपई अप्पीकीरई (गो. जी. / अधि. १५ / गा. ४८९) २. 'योग परिणामो लेश्या' (स्थानांग वृत्ति, पत्र २९)
'कर्म निष्यन्दो लेश्या' (उत्तरा. की वृहद् वृत्ति /अ. ३४ की टीका) ४. ते च परमार्थतः कषाय-स्वरूपा एवं (पण्णवणा/ पद १७ / मलयगिरि टीका) ५. (अ) दसविधे जीवपरिणामे (ठाणं स्थान १०/सू. १८) (ब) पन्नवणा/पद १३/सू. १
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