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कषाय और कर्म
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( ९ ) अनिवृत्ति बादर ( मन्दतम संज्वलन कषाय ) इस गुणस्थान में सभी साधकों की समान परिणाम दशा होती है। आठवें तक भेद बने रहते हैं, नौंवे से अभेद शुरू होता है। समान समयवर्ती सभी साधकों के परिणाम समान हो जाते हैं और प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनन्तगुनी विशुद्धता को प्राप्त होते हैं। संज्वलन कषाय के मन्दतम उदय में वीर्योल्लास प्रखर होने से स्वरूप - रमणता की स्थिति बनी रहती है। कषाय-नोकषाय मोहनीय कर्म-स्थितियों का उपशम अथवा क्षय का क्रम जारी रहता है।
(१०) सूक्ष्म - सम्पराय ( सूक्ष्म लोभ का उदय ) - सूक्ष्म - सम्पराय में अभिव्यक्ति रूप में कषाय उदय न होने पर भी अचेतन मन में लोभ की सूक्ष्म छाया शेष रहती है । " सूक्ष्म है, दिखाई नहीं दे रहा, अदृश्य तरंग है । जैसे- फर्श पर पानी गिरकर सूख जाता है किन्तु एक सूखी रेखा रह जाती है।
( ११ ) उपशान्त - मोह ( कषाय का पूर्ण उपशम ) - इस गुणस्थान में कषायों का उपशमन हो जाने से वह कुछ काल के लिए वीतराग समान हो जाता है। मोह शान्त हो जाता है। जैसे- धूल, कूड़ा-करकट नदी की तह में बैठ जाते हैं और ऊपर पानी एकदम स्वच्छ और साफ दिखाई देता है। लेकिन जरा-सा पानी को हिलाया कि नीचे बैठा कचरा ऊपर आ जाता है। वैसे ही कषाय का पूर्ण उपशम होने के पश्चात् भी अन्तर्मुहूर्त में दमित वासनाएँ संयोग पाकर पुनः प्रज्ज्वलित हो जाती हैं। फलतः इस गुणस्थान से अवरोह प्रारम्भ हो जाता है।
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(१२) क्षीण-मोह ( कषाय का सम्पूर्ण क्षय ) - कषायों का समूल नाश ! अब ऐसा नहीं कि झरने के नीचे कचरा बैठा है, कचरा झरने से समाप्त कर दिया गया। जल बिल्कुल शुद्ध हो गया । कषाय की समस्त प्रकृतियों का क्षय हो गया। साधक वीतराग अवस्था को उपलब्ध होता है। मोहनीय के अनन्तर अन्य तीन घाती कर्म- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं अन्तराय का क्षय होता है।
(१३) सयोगी केवली ( अकषाय अवस्था ) - केवलज्ञानी का जब तक देह से संबंध है, वह सयोगी है। भगवद्शक्ति, शुद्ध अवस्था प्राप्त है, किन्तु काया के साथ संयोग है।
(१४) अयोगी केवली ( अकषाय अवस्था) - मन, वचन, काय की समस्त चेष्टाएँ समाप्त / शान्त हो कर शैलेशी स्थिति को प्राप्त करने की अवस्था अयोगी केवली है। देह से सम्बन्ध छूटते ही साधक सिद्धावस्था प्राप्त करता है।
२०. विशेषा. / गा. १३.०२
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