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कषाय और कर्म
महावीर से वृतान्त निवेदन किया। तब प्रभुवीर ने केवलज्ञानरूपी सूर्य की प्रज्ञारश्मियों के आलोक में कहा - 'गौतम! तुम्हें कर्म विपाक देखना है तो महारानी मृगावती के पुत्र को देखो - जिसे गर्भगृह में रखा है !' गौतम गए और देखा मांस का लौंदा जैसा शरीर जिसमें इन्द्रियों के चिह्न मात्र थे! न कान, न आँख, न नाक और न मुँह । आहार हेतु तरल पदार्थ उसके शरीर पर डाल दिया - जिसे उसने पादप समान रोम छिद्रों से खींचा। तुरन्त मवाद का रूप लेकर वह आहार शरीर के रोमों से बाहर आ गया और पुनः भीतर खिंच गया। यह दृश्य देखकर गौतम गणधर के रोंगटे खड़े हो गए। प्रभु के चरणों में प्रश्न किया- 'प्रभो! मृगापुत्र की ऐसी दुर्दशा का कारण क्या है ? ' प्रभु ने अतीत के पृष्ठ खोलते हुए कहा- ‘राठौड़ के भव में इसने व्यसनाधीन होकर कितने व्यक्तियों के अंगच्छेद किए, कई घर जला दिए। इसकी क्रूरता के कारण यह आज मनुष्य देह पाकर भी इन्द्रियहीन बना है।
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( ३ ) वेदनीय कर्म और कषाय
सुखानुभव में कारण सातावेदनीय एवं दुःखानुभव में कारण आसातावेदनीय कर्म है। सातावेदनीय से शारीरिक स्वस्थता, पारिवारिक अनुकूलता, सुख-सुविधा तथा असातावेदनीय के उदय से दुःख, कष्ट, प्रतिकूलताएँ प्राप्त होती हैं।
सातावेदनीय कर्म कषायमन्दता से बँधता है। लोभ कषाय की मन्दता स्वरूप सन्तोष गुण, सुपात्रदान, सेवा-सहयोग करना। किसी के अपराध पर क्रोध नहीं करना । गुणीजनों का विनय सेवा करना । करुणाभाव रखना - इत्यादि कारणों से सातावेदनीय कर्मबन्ध होता है । "
आसातावेदनीय कर्म कषाय तीव्रता से बँधता है । यथा इच्छा पूर्ण न होने पर दुःख, शोक, सन्ताप करना । स्वयं को कष्ट देना एवं अन्य को सताना, वध करना, दुःखी करना। दूसरों का तिरस्कार करना। किसी को दुःख देकर प्रसन्न होना। "
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कालसौरिक कसाई प्रतिदिन पाँच सौ भैंस के पाड़े मारता था। उसका भविष्य त्रिलोक - त्रिकालदर्शी प्रभुवीर ने गौतम गणधर को बताते हुए कहा'यह असह्य वेदना से तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त होगा एवं नरकगामी होगा। अन्य जीवों को पीड़ा देने से यह परिणाम मिलता है।'
५. विपाकसूत्र
६. तत्त्वार्थसूत्र / अ. ६ / सू. १२
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वही/सू. १३
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