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कषाय और कर्म
(क) ध्रुवबन्धिनी- अपने कारण की विद्यमानता में जो कर्म-प्रकृतियाँ अवश्य बँधती हैं, वे १८ हैं। ___ सोलह कषाय एवं भय, जुगुप्सा- इन कर्म-प्रकृतियों का उदय समय भी सतत् बन्धन चलता है।
(ख) अध्रुवबन्धिनी- बन्धकारण होने पर जो कर्म-प्रकृतियाँ कभी बँधती भी हैं और कभी नहीं भी बँधती हैं अर्थात् किन्हीं दो या तीन कर्म-प्रकृतियों में से एक का बन्ध होता है।
हास्य अथवा शोक, रति या अरति, स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसकवेद में से एक प्रकृति का एक समय बन्ध।
(ग) ध्रुवोदया- जो कर्म-प्रकृतियाँ कर्म-क्षय की अन्तिम अवस्था तक उदय में रहती हैं।
कोई भी कर्म-प्रकृति सदा उदय में नहीं रहती।
(घ) अधुवोदया- अपने उदयकाल-पर्यन्त जो कर्म-प्रकृतियाँ कभी उदय में होती है, कभी नहीं।
__ कषाय अथवा नोकषाय मोहनीय की समस्त प्रकृतियाँ निरन्तर उदय में नहीं रहती। एक समय एक का उदय होता है।
(ङ) ध्रुवसत्ता- जिनकी सत्ता विच्छेद काल तक बनी रहती हैं। अपने उदयकाल पर्यन्त सभी की सत्ता बनी रहती है।
(च) अध्रुवसत्ता- जिनकी सत्ता विच्छेद काल से पूर्व कभी रहती हैं, कभी नहीं। अध्रुवसत्ता वाली कोई कर्म-प्रकृति नहीं है।
(छ) सर्वघातिनी- जो कर्म-प्रकृतियाँ आत्म-गुणों का पूर्ण रूप से घात करती हैं। वे निम्न हैं
अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यानी चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क।
(ज) देशघातिनी- आंशिक रूप से आत्म-गुणों को आवृत करने वाली कर्म-प्रकृतियाँ- संज्वलन कषायचतुष्क, नौ नोकषाय ।
(झ) पुण्य-पाप- शुभाशुभ फल देने वाली कर्म-प्रकृतियाँ।
तत्त्वार्थसूत्रानुसार ४२- हास्य, रति, पुरुषवेद पुण्यकर्म-प्रकृतियाँ तथा अन्य सभी पाप कर्म-प्रकृतियाँ हैं।
गोम्मटसार के अनुसार- सभी कर्म-प्रकृतियाँ पाप प्रकृतियाँ हैं।
(अ) परावर्तमाना- सजातीय कर्म-प्रकृति के उदय का निरोध करके जो कर्म-प्रकृतियाँ उदय होती हैं। सोलह कषाय, हास्य-रति, अरति-शोक, तीन वेद।
(त) अपरावर्तमाना- किसी कर्म-प्रकृति के उदय को न रोक कर जो उदय होती हैं वे हैं- भय, जुगुप्सा। ४२. तत्त्वार्थसूत्र अ. ८/ सू. २६
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