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चतुर्थ अध्याय कषाय और गुणस्थान
सिद्धशिला
चौदह गुणस्थान
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सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते हुए व्यक्ति इमारत की एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर पहुँच जाता है; मार्ग में मील के पत्थरों को पीछे छोड़ता हुआ यात्री अपने गन्तव्य पर पहुँच जाता है, वैसे ही आत्म-विकास के चौदह सोपानों पर चढ़ते हुए आध्यात्मिक यात्री मोक्ष-मंजिल पर पहुँच जाता है। आगम साहित्य में इन्हें जीव-स्थान' एवं परवर्ती साहित्य में गुणस्थान' संज्ञा दी गई है। ये चौदह हैं
(१) मिथ्यादृष्टि (२) सास्वादन (३) सम्यगमिथ्यादृष्टि (४) अविरत सम्यग्दृष्टि (५) देशविरत सम्यग्दृष्टि (६) प्रमत्तसंयत (७) अप्रमत्तसंयत (८) अपूर्वकरण (निवृत्ति बादर) (९) अनिवृत्ति बादर (१०) सूक्ष्म सम्पराय (११) उपशान्त कषाय छद्मस्थ वीतराग (१२) क्षीणकषाय छद्मस्थ वीतराग (१३) सयोगी केवली (१४) अयोगी केवली गुणस्थान।
(१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान (अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय)अनादिकाल से मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत श्रद्धा के वशीभूत होकर जीव की
१. जीवट्ठाणा पण्णता (समवाओ/ समवाय १४/ सू. ५) २. गो. जी. /गा. ८ ३. द्वितीय कर्म-ग्रन्थ /गा. २
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