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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
पथिकों को अपनी ओर आते हुए चोर दिखाई दिये। भयभीत हो कर एक पथिक उल्टे पाँव चल पड़ा, दूसरे पथिक ने सामना किया, पर परास्त हो गया। तीसरे पथिक ने चोरों को पराजित कर दिया एवं अपने गन्तव्य पर सकुशल पहुँच गया।
__ इसी प्रकार भयंकर अटवी-रूप इस संसार में कई जीव यथाप्रवृत्तिकरण तक पहुँच जाते हैं; लेकिन अनन्तकालीन आसक्ति रूप राग-द्वेष की तीव्रता से अपूर्वकरण नहीं कर पाते हैं। कुछ साधक राग-द्वेष को जीतने का प्रयास करते हैं, किन्तु अन्ततः हार जाते हैं। कुछ साधक तीव्र भावोल्लास से उस अनन्तकालीन राग-द्वेष की निबिड-ग्रन्थि को तोड़ डालते हैं-१२ ऐसी अवस्था अपूर्व भाव-विशुद्धि से प्राप्त होती है। अतः इसे अपूर्वकरण कहते हैं।
अनिवृत्तिकरण- ये करण सम्यक्त्व-सम्मुख जीव को होता है। इस अवस्था को प्राप्त साधक सम्यक्त्व-लाभ के बिना निवृत्त नहीं होता। इसके अन्तिम समय में मिथ्यात्व रूपी अन्धकार विलीन होता है एवं सम्यक्त्व रूपी सूर्य का उदय होता है।
(२) सास्वादन (अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय)- यह गुणस्थान क्रम की अपेक्षा से द्वितीय स्थान पर है; किन्तु इस गुणस्थान का स्पर्श चतुर्थ गुणस्थान से पतित आत्मा करती है। १३ उपशम सम्यक्त्व प्राप्ति के क्षणों में अनन्तानुबन्धी कषाय उपशमित रहता है। अन्तर्मुहूर्त में अल्पतम एक समय और अधिकतम छह आवली शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया एवं लोभ में से किसी एक कषाय का उदय होने पर सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है और जीव मिथ्यात्वसम्मुख हो पड़ता है। इस काल में सास्वादन गुणस्थान की प्राप्ति होती है।
(३) मिश्र (अनन्तानुबन्धी कषाय का अभाव)- सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व की मिश्रित स्थिति है, मिश्र गुणस्थान। दही और गुड़ के मिश्रित स्वाद जैसी यह स्थिति है। जैसे छोटा-सा टिमटिमाता दीया जलाते हैं। एक कोने में रोशनी भी हो जाती है, कमरा अंधेरा भी बना रहता है। इस अवस्था में धर्म-बोध की कुछ झलक होती है।
प्रथम गुणस्थानवी जीव मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय का जब निरोध करता है तथा मिश्र मोहनीय का अनुभवन करता है, तब वह
१२. विशेषा. / गा. ११९५ १३. गो. क./गा. १९ की टीका १४. द्वितीय कर्म-ग्रन्थ पृ. २१५
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