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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
लोभ : अन्य की पुस्तकें, कॉपी, नोट्स, पेन आदि चुरा लेना। दूसरे के अधिकार
की पुस्तकों के पन्ने फाड़ लेना, शीघ्रता के लोभ से अशुद्ध सूत्र बोलना, शब्दों की मात्रा न्यूनाधिक करना, अस्वाध्याय के समय सूत्र पठन-पाठन
करना आदि। मान : विनयरहित पढ़ना, पुस्तक जमीन पर रखना, अपवित्र स्थान में रखना,
उपेक्षापूर्वक पैर लगाना, थूक लगाना, मस्तिष्क के नीचे रखना; ज्ञानी से कुतर्क करना, सत्य सिद्धान्त स्मरण न आने पर विपरीत प्ररूपणा
करना, सूत्र का अर्थ असत्य कहना, गूंगे-तोतले की हँसी करना आदि। क्रोध : ज्ञानी से ईर्ष्या करना, ज्ञानी की अवज्ञा, अनादर करना; किसी के पढ़ने
में विघ्न डालना, अध्यापक पर क्रोध करना, उसकी निन्दा करना;
पुस्तक फाड़ना, क्रोध में ज्ञान उपकरण जला देना आदि। माया: किसी की कविता पर अपना नाम लगा देना, अन्य के लेख के साथ अपना
नाम जोड़ देना, ज्ञान किसी से ग्रहण करना और गुरु किसी अन्य को कहना आदि।
ये सब ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के हेतु हैं। ज्ञान-पंचमी कथा में उदाहरण है - वसुदेव मुनि प्रतिदिन पाँच सौ मुनियों को वाचना देते थे। एक दिन उन्हें अस्वस्थता महसूस हुई। ज्वर से देह तपने लगी। मुनि शय्या पर लेट गए। मन विश्राम चाह रहा था; किन्तु एक के बाद एक मुनि अपनी अध्ययन सम्बन्धी जिज्ञासा लेकर उनके निकट आते रहे। तन ज्वराक्रान्त था; मन क्रोधाक्रान्त हो गया। 'अहो! इतनी अस्वस्थता में भी विश्राम नहीं। मुझसे अच्छा मेरा ज्येष्ठ मुनि भ्राता है। जिसकी मूढ़ता के कारण कोई उससे अपेक्षा नहीं करता।' क्रोधावेश में मुनि ने माया से मौन धारण कर लिया और निकटस्थ मुनियों को ज्ञान-दान देना बन्द कर दिया। उसी अवस्था में वे मृत्यु को प्राप्त हुए और ज्ञानप्रदान में प्रमाद, क्रोध एवं माया करने से अगले जन्म में राजकुमार होकर भी मूक, बधिर एवं कुष्ट रोग से पीड़ित हुए।
(२) दर्शनावरणीय कर्म और कषाय क्रोध के वशीभूत हो किसी की इन्द्रियों का, अंगों का छेदन-भेदन करना, प्रमाद करना, निद्रा की इच्छा करना-ये सब दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के हेतु हैं।
किसी अपंग दीन-हीन को देखकर द्रवित हुए गौतम गणधर ने जब भगवान् ४. बारह पर्व कथा
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