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कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन
प्रभु महावीर द्वारा श्रेणिक महाराजा को अपना अन्धकारमय भविष्य ज्ञात हुआ । दुर्गति की कल्पना से मन काँप उठा । श्रेणिक प्रभु वीर के चरणों का अश्रुबिन्दुओं से प्रक्षालन करने लगे- 'प्रभो! क्या इस नारकीय वेदना से रक्षण का कोई उपाय नहीं है । ' श्रेणिक की अन्तर्व्यथा आँसुओं के माध्यम से बहने लगी । श्रमण भगवान् महावीर का गंभीर स्वर गुंजित हो उठा - 'हे! श्रेणिक एक उपाय है। ' श्रेणिक की झुकी पलकें उठ गईं। आँखों में चमक पैदा हो गई। उत्सुकता से प्रश्न किया- 'प्रभो! फरमाइए । मैं क्या करूँ ?' सर्वज्ञ प्रभु ने मधुर मन्द स्वर में उत्तर दिया- 'यदि तुम नवकारसी (सूर्योदय के ४८ मिनट पश्चात् ही आहार ग्रहण ) का संकल्प स्वीकार करो, व्रत-तप रूपी नियम अंगीकार करो तो यह संभव है । ' श्रेणिक ने प्रयास किया; किन्तु अप्रत्याख्यानी कषाय का उदय उनके व्रतपालन में बाधक बना रहा और वे संकल्प पालन नहीं कर सके ।
प्रभु के चरणों में उपस्थित होकर अपनी असमर्थता का श्रेणिक महाराजा ने निवेदन कर दिया। अप्रत्याख्यानी कषायोदय जीव को अंशतः व्रतपालन में भी विघ्न पैदा कर देता है।
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अप्रत्याख्यानी कषाय का उदय रूप अधिकतम काल श्वेताम्बर ग्रन्थों अनुसार१२९ एक वर्ष एवं दिगम्बर ग्रन्थों अनुसार ३ छह मास वर्णित है। इससे अधिक काल यदि वह कषाय-संस्कार बना रहा तो अनन्तानुबन्धी कहलाता है तथा वह मिथ्यात्व अवस्था मानी जाती है ।
इस काल मर्यादा को ध्यान में रखते हुए ही जैन परम्परा में 'सांवत्सरिक प्रतिक्रमण' की व्यवस्था है । वर्ष भर में हुए समस्त बैर - विरोध, द्वेष- रोष आदि को समाप्त करना, क्षमा आदान-प्रदान करना, पूर्व कषाय संस्कारों को क्षय करना - इस प्रतिक्रमण का उद्देश्य होता है।
प्रत्याख्यानावरण कषाय
ta मोह के बन्धन शिथिल होने लगते हैं, भोगासक्ति अल्प- अल्पतम हो जाती है, गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी व्रत - नियम स्वीकार करने का संकल्प जागता है, श्रावक योग्य बारह व्रतों को ग्रहण करने की मानसिकता है - तब अप्रत्याख्यानी कषाय का बल समाप्त होता है।
१२९. वच्छर... ( आचारांग / शीला. / अ. २ / उ. १ / सू. १९० ) १३०. (अ) छण्हं मासाणं (क. चू. / अ. ८ / गा. ८५ / सू. २२ ) (ब) अप्रत्याख्यानावरणानां षण्मासा ( गो . क. / गा. ४६ )
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