________________
कषाय का स्वरूप
(८) भाव-कषाय- क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि मनोविकार भावकषाय कहलाते हैं। इन्हें छह अनुयोगद्वारों में नयों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। छह अनुयोगद्वारों में नयों की अपेक्षा भाव-कषाय
भाव-कषाय छह अनुयोगद्वार निम्नोक्त हैं-२१
(अ) निर्देश (ब) स्वामित्व (स) साधन (द) अधिकरण (प) काल (फ) भेद।
_ निर्देश (कषाय क्या है? )-नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र नयों की अपेक्षा कषाय करने वाली आत्मा ही कषाय है२२; क्योंकि कषाय-उत्पत्ति में कारण कोई भी बने पर उपादान-रूप स्वयं अशुद्ध आत्मा है।
__ शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नयों की अपेक्षा क्रोध, मान, माया, लोभ के भाव-कषाय हैं।
स्वामित्व (कषाय का स्वामी कौन? )-नैगम आदि चार नयों की अपेक्षाकषाय का स्वामी आत्मा है, शब्द नय आदि तीन नय कषाय का स्वामी कषाय को मानते हैं।
साधन (कषाय का कारण क्या है? )- नैगम आदि चार नयों की अपेक्षा कषाय का कारण है - अन्तरंग में चारित्रमोहनीय-कर्म का उदय एवं बाह्य में अनिष्ट वचन, प्रतिकूल भोजन इत्यादि। शब्द नय आदि तीन नयों की अपेक्षा जीव का अशुद्ध परिणमन कषाय का कारण है। ___अधिकरण (कषाय किसमें उत्पन्न होता है? )- नैगम आदि चार नयों की अपेक्षा प्रतिकूलता अथवा अनुकूलता रूप बाह्य कारणों से कषाय उत्पन्न होता है, अतः बाह्य सामग्री कषाय का आधार है। शब्द आदि तीन नयों की दृष्टि से कर्मयुक्त आत्मा कषाय का आधार है।
काल (कषाय का समय)- अभव्य जीव की अपेक्षा अनादि-अनन्त काल कषाय रहता है। अनादि से था तथा अनन्तकाल तक रहेगा। क्षपक श्रेणी आरूढ़ साधकों का कषाय अनादि सान्त है। अनादिकाल से कषाय था; किन्तु श्रेणी पूर्णता पर कषाय क्षय होता है। उपशम श्रेणीच्युत साधक का कषाय सादि-सान्त होता है। ग्यारहवें गुणस्थान में कषायोदय नहीं होता; किन्तु श्रेणी अवरोह में पुनः उदय होता है।
२१. क. चू. / अ. १ / गा. १३-१४/ सू. ७२ से ७९ २२. वही।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org