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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
१. क्रोध २. कोप ३. रोष ४. दोष ५. अ-क्षमा ६. संज्वलन ७. कलह ८. चाण्डिक्य ९. मंडन १०. विवाद।
कसायपाहुड में भी क्रोध के दस पर्याय वर्णित हैं। जिनमें 'चाण्डिक्य' एवं 'मंडन' के स्थान पर 'वृद्धि' एवं 'झंझा' पर्याय उपलब्ध हैं।
१. क्रोध-क्रोधोत्पत्ति में निमित्तभूत कर्म की सामान्य संज्ञा क्रोध है।
२. कोप-संस्कृत में 'कुप्' धातु से भाव अर्थ में 'घञ्' प्रत्यय जुड़ कर कोप शब्द की सिद्धि होती है। अभिधानराजेन्द्रकोष में कोप कामाग्नि से उत्पन्न होने वाली चित्तवृत्ति बताई गई है। ३९ यह प्रणय और ईर्ष्या से उत्पन्न होती है। 'साहित्य दर्पण' के अनुसार प्रेम की कुटिल गति से जो अकारण क्रुद्ध स्थिति होती है- वह कोप है। ‘भगवती वृत्ति' के अनुवादक के अनुसार क्रोध के उदय को अधिक अभिव्यक्त न करना कोप है।
सामान्यतः देखने में आता है- कई व्यक्ति क्रोध आने पर वाचिक प्रतिक्रिया नहीं करते हैं; पर चेहरे की स्तब्धता/भंगिमा उनकी असामान्य स्थिति का बोध करा देती है। इसलिए बोलचाल की भाषा में कह दिया जाता है- 'क्यों मुँह फुला रखा है? अथवा इनका मुँह सूजा हुआ है।'
३. रोष-शीघ्र शान्त नहीं होने वाला क्रोध- रोष है।" रोष में मुखमुद्रा से होने वाली क्रोधाभिव्यक्ति लम्बी अवधि तक बनी रहती है। इस अवस्था में आँखों की लालिमा प्रकट करती है कि यह क्रोधावस्था में है।
४. दोष-स्वयं को अथवा दूसरे को दूषण देना।२ कई व्यक्ति क्रोध स्थिति में स्वयं पर दोष मढ़ते रहते हैं- जैसे- 'हाँ भई! हम तो झूठ बोलते हैं?' अथवा 'मैंने क्यों कहा? मुझे क्या पड़ी थी - बीच में बोलने की!'
कई व्यक्ति क्रोध की तीव्रता में अपने द्वेष-पात्र पर झूठा कलंक लगा देते हैं, विपरीत बोलते हैं। वे तो सदा पक्षपात करते हैं! अपनी छोटी बहू को चुपचाप न जाने क्या-क्या देते रहते हैं! कितना सोना-चाँदी-रुपया दे चुकेहिसाब ही नहीं है।' -इस तरह की भाषा का उपयोग द्वेष रूपी क्रोधावस्था में हो जाता है।
३८. क.चू./ अ. ९/ गा. ८६ का अनुवाद ३९. अभिधानराजेन्द्रकोष/ भाग ७/ पृ. १०६ ४०. भगवतीसूत्र/ अभयदेवसूरि वृत्ति/ श. १२/ उ. ५/ सू. २ ४१. से ४२. वही।
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