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कषाय के भेद
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गुरु चरणों में विनम्र अंजलिबद्ध प्रणाम के उपरान्त लक्ष्मणा ने मन्द स्वर में प्रश्न किया- 'हे पूज्या! किसी पक्षी-युगल की वासनात्मक क्रिया देख यदि विकार-परिणाम आए तो क्या प्रायश्चित करना चाहिए?' गुरु ने गंभीरता से प्रतिप्रश्न किया-'यह प्रायश्चित किसे लेना है?' लक्ष्मणा के माथे पर पसीने की बूंदें झिलमिला उठी। पाप को स्वीकार करने का साहस वह जुटा नहीं पाई! सहसा मुख से बोल फूट पड़े- 'किसी ने यह प्रश्न करने के लिए मुझे कहा है।' बस सब समाप्त हो गया। माया ने प्रायश्चित करने के उपरान्त प्रायश्चित नहीं होने दिया। दीर्घकालिक तपस्या भी पाप के दाग धो नहीं पाई और वह माया अनंत संसार का कारण बन गई।
रुक्मी राजकुमारी पिता की मृत्यु पश्चात् राजसिंहासन पर आसीन हुई। रुक्मी के ब्रह्मचर्य की ख्याति दूर-सुदूर देशों तक फैलती गई। एक दिन राजसभा में एक राजकुमार रुक्मी के दर्शनार्थ आया- कुछ देर ठहरा और अपने मार्ग पर चला गया।
वर्षों बीत गये। रुक्मी का मन राज्य-वैभव से हटकर आत्म-वैभव पाने के लिए तड़प उठा। साध्वी जीवन अंगीकार किया। साधना प्रखर बनती गई। एक दिन आचार्य भगवन्त के समक्ष मुनि-मण्डल एवं साध्वी-मंडल समुपस्थित था। कई श्रमण-श्रमणियाँ आचार्यश्री से अपने पापों की आलोचना रूप प्रायश्चित ग्रहण कर रहे थे। अचानक आचार्यश्री ने रुक्मी साध्वी पर दृष्टिपात किया और पूछ लिया- 'हे आर्या! आपको प्रायश्चित लेना है? रुक्मी ने सहज- सौम्यता से कहा- 'नहीं भगवन्! आचार्य की दृष्टि में अतीत परत-दर-परत उघड़ने लगा था। उन्होंने पुनः कहा-'स्मरण करो! जब तुम राजकुमारी थी। राजसिंहासन पर आसीन थी और एक राजकुमार तुम्हारे दर्शन की भावना से आया था।' रुक्मी मुस्कुराई-'प्रभो! याद है।' आचार्य फिर अतीत में खींच ले गए-'फिर क्या यह भी याद है कि तुमने विकारमय कटाक्ष दृष्टि से उस राजकुमार पर दृष्टि-निपात किया था?' रुक्मी चौंक पड़ी। ओ हो! क्या वही कुमार- ये आचार्य हैं? पाँवों तले धरती खिसकने लगी। आँखों के आगे अन्धकार छाने लगा। जिस अखण्ड ब्रह्मचर्य की ख्याति दूर-सुदूर व्याप्त थी- उस पर कालिमा का दाग दिखाई देने लगा। पर मन पाप स्वीकार की स्थिति के लिए तैयार नहीं हुआ। माया ने अपना आँचल फैला दिया।
१०६. कथा-संग्रह
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