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कषाय के भेद
छल द्वारा कार्यसिद्धि न हो तो स्वयं बहुत संतप्त होता है। माया महादोष है। इससे निवृत्ति का उपाय ढूँढ़ना चाहिए।"
माया के बहतेरे रंग और ढंग होते हैं। समवायांगसूत्र में माया के सत्रह पर्याय बताये हैं। ये हैं- माया, उपधि, निकृति, वलय, गहन, न्यवम, कल्क, कुरूक, दम्भ, कूट, जिम्ह, किल्विषिता, अनाचरणता, गृहनता, वंचनता, परिकुंचनता और सातियोग।
भगवतीसूत्र में माया के पन्द्रह समानार्थक दिये गए हैं। ६ 'समवायांग' में दिये सत्रह पर्यायों में से दंभ एवं कूट को 'भगवतीसूत्र' में नहीं लिया गया है।
इन पर्यायों का अर्थ निम्नोक्त है१. माया-माया का भाव उत्पन्न करने वाला कर्म। ८७ २. उपधि-ठगने के लिए समीप जाने का भाव। ८ ३. निकृति-आदर-सत्कार से विश्वास जमाकर विश्वासघात करना। ४. वलय-जब वचन और व्यवहार में वलय सम वक्रता हो। ५. गहन-ठगने के लिए शब्द जाल की रचना।। ६. न्यवम-नीचता का आश्रय लेकर ठगना। ९२ ७. कल्क-हिंसादि पाप-भावों से ठगना। ९३ ८. कुरूक-निन्दित रीतिपूर्वक मोह उत्पन्न करके ठगना। ४ ९. दम्भ-शक्ति के अभाव में स्वयं को शक्तिमान मानना। ५ १०. कूट-असत्य को सत्य बताना। ९६ ११. जिम्ह-ठगी के अभिप्राय से कुटिलता का आलम्बन। ९७ १२. किल्विषि-माया प्रेरित होकर किल्विषी जैसी निम्न प्रवृत्ति करना। ४
१३. अनाचरणता-ठगने के लिए विविध क्रियाएँ करना। भगवतीसूत्र में अनाचरण नहीं, आदरणता शब्द प्रयोग हुआ है।
१४. गृहनता-मुखौटा लगाकर ठगना।
१५. वंचनता-छल-प्रपंच करना। १०१ ८४. मोक्षमार्ग प्रकाशक पं. टोडरमल | पृ. २३ ८५. माया उ वही नियडो वलए (समवाओ/ समवाय ५२/ सूत्र१) ८६. भगवतीसूत्र/ श. १२/ उ. ५/ सू. ४) । ८७. से ९८. / भगवतीसूत्र/ श. १२/ उ. ५/ सू. ४ ९९. से १०१. भगवतीसूत्र | श. १२ / उ. ५ / सू. ४
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