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कषाय के भेद
क्रोध की चार अवस्थाएँ
स्थानांगसूत्र तथा प्रज्ञापनासूत्र५३ में क्रोध की चार अवस्थाओं का उल्लेख
१. आभोगनिर्वर्तित, २. अनाभोगनिर्वतित, ३. उपशान्त ; ४. अनुपशान्त।
१. आभोगनिर्वर्तित क्रोध-वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि ने 'आभोग' का अर्थ ज्ञान किया है। क्रोध के दुष्परिणामों को जानते हुए भी क्रोध करनाआभोगनिर्वर्तित क्रोध है।
आचार्य मलयगिरि ने इसकी व्याख्या भिन्न प्रकार से की है-५५ क्रोध न आने पर भी अपराधी को सबक देने के लिए क्रोधपूर्ण मुद्रा बनानाआभोगनिर्वर्तित क्रोध है। जैसे बच्चे को भयभीत करने के लिए माँ क्रोध का अभिनय करती है।
२. अनाभोगनिर्वर्तित क्रोध-क्रोध के दुष्परिणाम से अनजान हो कर क्रोध करना- अनाभोगनिवर्तित क्रोध है।
आचार्य मलयगिरि के अनुसार-५६ आदत से मजबूर हो कर लाभ-हानि का विचार किए बिना अकारण निष्प्रयोजन क्रोध करना - अनाभोगनिर्वतित है।
३. उपशान्त क्रोध- सुप्त क्रोध संस्कार उपशान्त क्रोध है। ४. अनुपशान्त क्रोध- उदय को प्राप्त क्रोध अनुपशान्त क्रोध है।
क्रोधोत्पत्ति के कारण- स्थानांगसूत्र में क्रोध को चतुः प्रतिष्ठित कहा है। वे इस प्रकार हैं-५०
(अ) आत्म-प्रतिष्ठित, (ब) पर-प्रतिष्ठित, (स) तदुभय-प्रतिष्ठित; (द) अप्रतिष्ठित।
(अ) आत्म-प्रतिष्ठित (स्व-निमित्त)- जिस क्रोधोत्पत्ति में कारण स्वयं ही हो। जैसे हाथ से काँच का गिलास गिरा, टूट गया। अपनी लापरवाही पर मन क्षुब्ध हो गया, स्वयं को धिक्कारने लगा।
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५२. चउब्बिहे कोहे पण्णति - तं जहा आभोगणिव्वतिते, अणाभोग। (ठाणं स्थान ४/
उ.१/ सू. ८८) ५३. प्रज्ञापना/पद १४/ मलयगिरि वृत्ति/ पत्र २९१ ५४. आभोगो – ज्ञानं तेन निर्वतितो.... (स्थानांग वृत्ति/ पत्र १८२) ५५. यदा परस्यापराधं सम्यगवबुध्य .... (प्रज्ञापना/ पद १४/ मलयगिरि वृत्ति पत्र २९१) ५६. वही। ५७. चउपतिट्टिते कोहे पण्णत्ते, तं जहा- आतपतिट्टिते..... (ठाणं/स्थान ४/उ. १/ सू. ७६)
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