________________
कषाय के भेद
१७
क्रोध का नाश कर सुख से सोना, क्रोध का नाश कर शोकमुक्त होना, विष के मूलस्वरूप क्रोध का वध करना-हे ब्राह्मण! बड़ा अच्छा लगता है।
इसी प्रकार किसी व्यक्ति द्वारा गालियाँ देने पर भी वे शान्त बने रहे और प्रश्न किया : 'भद्र! तुम किसी के पास कोई वस्तु ले जाओ और वह स्वीकार न करे, तो वह कहाँ रहेगी?' उस क्रुद्ध व्यक्ति ने झंझलाकर कहा : 'किसके पास...? अरे वह तो मेरे पास ही रहेगी!' तथागत ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया- 'भद्र! तुम्हारे द्वारा दी जाने वाली गाली मैं स्वीकार नहीं करता।' ।
तथागत बुद्ध ही नहीं समस्त महापुरुषों में क्षमा, समता, सहिष्णुता, अक्रोध स्थिति रहती ही है। भगवान् महावीर को साधनाकाल में कितने भयंकर कष्ट, बहुतेरे उपद्रव, मलिन उपसर्ग और कठोर परीषहों को सहन करने का प्रसंग बना- हर निमित्त में वे शान्त, अविचल समता में स्थित रहे।
मनोविज्ञान में क्रोध को संवेग कहा गया है। संवेग उत्पन्न होने की स्थिति में अनेक शारीरिक परिवर्तन घटित होते हैं। भय, क्रोधावस्था में थाइरायड ग्लैण्ड (गलग्रन्थि) समुचित कार्य नहीं करती- जिससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ३४ स्वचालित तन्त्रिका तन्त्र का अनुकम्पी तन्त्र क्रोधावेश में हृदयगति, रक्त प्रवाह तथा नाड़ी की गति बढ़ा देता है। पाचन क्रिया में विघ्न आता है, रुधिर का दबाव बढ़ता है तथा एड्रीनल ग्लैण्ड (अधिवृक्क ग्रन्थि) को उत्तेजित करता है। ३५
क्रोध के प्रदीप्त होने पर शक्ति का ह्रास होता है, ऊर्जा नष्ट होती है, बल क्षीण होता है। मनोविज्ञान की मान्यता है- तीन मिनट किया गया तीव्र क्रोध नौ घंटे कठोर परिश्रम करने जितनी शक्ति को समाप्त कर देता है। जैसे दिन भर चलने वाली हवा से घर में उतनी मिट्टी नहीं आती- जितनी धूल पाँच मिनट की आँधी में आ जाती है। वैसे ही पूरे दिन भर की भाव-दशा से इतने कर्म-परमाणु आत्मा में नहीं आते-जितने पाँच मिनट के क्रोध में आ जाते हैं।
क्रोध-भाव की विभिन्न परिणतियों के अनुसार क्रोध की कई समानार्थक स्थितियाँ बताई गई हैं, जो इस प्रकार हैं- क्रोध के समानार्थक नाम-समवायांगसूत्र एवं भगवतीसूत्र" में क्रोध के दस पर्याय प्राप्त होते हैं३३. शिक्षा मनोविज्ञान/प्रो. गिरधारीलाल श्रीवास्तव पृ. १८१ ३४. शारीरिक मनोविज्ञान/ ओझा एवं भार्गव पृ. २१४ ३५. सामान्य मनोविज्ञान की रूपरेखा/ डॉ. रामनाथ शर्मा/ पृ. ४२०-४२१ ३६. तं जहा - कोहे कोवे रोसे दोसे अखमा संजलणे. (समवाओ/ समवाय ५२/ सू. १) ३७. भगवतीसूत्र/ श. १२/ उ. ५/ सू. २
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org