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कषाय के भेद
माया-कार्यसिद्धि के लिए होती है तथा कार्यसिद्धि होने पर प्रसन्नता होती है, अतः राग-रूप है।
लोभ-इसके मूल में सुख की कामना छिपी होती है। मनोवांछित पदार्थ को पा कर सुखानुभव होता है, अत: राग-रूप है।
व्यवहार नय-विशेषावश्यकभाष्य" एवं कसायपाहुड' में व्यवहार नय की अपेक्षा क्रोध, मान और माया को द्वेष-रूप एवं लोभ को राग-रूप बताया गया
क्रोधी एवं मानी तो जगत में हेय दृष्टि से देखे ही जाते हैं; किन्तु माया प्रकट होने पर मायावी को भी सभी सन्देह, अविश्वास एवं घृणा की दृष्टि से देखते हैं। फलस्वरूप मायावी का चित्त अशान्ति एवं दुःख का अनुभव करता है, अत: व्यवहार नयापेक्षा माया द्वेष-रूप है।
व्यवहार नयापेक्षा लोभ राग-रूप है, क्योंकि परिवार-पालन एवं जीवननिर्वाह के लिए धन-संग्रह की आवश्यकता है। अतः पदार्थों की लालसा से धनसंग्रह में तत्परता/परिश्रम को जगत् में अनुचित नहीं माना गया है।
ऋजुसूत्र नय-विशेषावश्यकभाष्य में ऋजुसूत्र नयापेक्षा क्रोध द्वेष-रूप है तथा मान, माया, लोभ प्रसंगानुसार कभी राग-रूप, कभी द्वेष-रूप होते हैं, क्योंकि प्रस्तुत नय वर्तमानग्राही है।
जब परगुणों में अप्रीति हो, अन्यों के प्रति तिरस्कार हो- तब मान द्वेषरूप है तथा स्वयं के गुणों में प्रसन्नता हो, तो वह मान राग-रूप है।
परोपघात करने पर माया एवं लोभ द्वेष-रूप हैं, स्वशरीर, स्वजन, स्वधन हेतु माया-लोभ राग-रूप हैं।
कसायपाहुड में लोभ को ऋजुसूत्र नयापेक्षा पूर्णतः राग-रूप बताया गया
शब्द नय-विशेषावश्यकभाष्य में शब्दादि तीन नयों की अपेक्षा मान, माया को लोभ में अन्तर्भूत किया गया है। जब ये स्व-उपकार से सम्बन्धित होते हैं तब राग-रूप ; किन्तु जब ये परघाती होते हैं, तब ये द्वेष-रूप होते हैं। १५. विशेषा./ गा. २९७० १६. क. चू./ अ. १/गा. २१/सूत्र ८९ १७. विशेषा. गा. २९७१ से २९७४ १८. क. चू./ अ. १/गा. २१/सू. ९० १९. विशेषा. गा. २९७५ मे २९७७
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