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कषाय का स्वरूप
Legion
१.
२.
३.
४.
प्रथम अध्याय
जन्म
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चतुर्गति
पुनः शरीरधारण
संसार
कर्म
व्याधि
पुनः मरण
कषाय (जड़)
जैनागमों में राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि मलिन चित्तवृत्तियों को कषाय संज्ञा दी गई है । '
मरण
'कषाय' शब्द का प्रयोग कहीं-कहीं 'कसैलेपन" के अर्थ में हुआ है, किन्तु मुख्यतः इसका उपयोग क्रोधादि भावों के लिए ही हुआ है । प्राचीनतम आगम आचारांगसूत्र में इन दोनों अर्थों में कषाय शब्द प्रयुक्त है। सूत्रकृतांग में एक स्थल पर कटुवचन के लिए भी 'कषाय' शब्द आया है; किन्तु सामान्यतया आगमिक एवं दार्शनिक ग्रन्थों में क्रोधादि वृत्तियों के लिए ही 'कषाय' शब्द दिया गया है।
'आचारांगसूत्र' की वृत्ति में शीलांकाचार्य ने 'कषाय' शब्द का अर्थ किया है - 'कष्' अर्थात् संसार, आय अर्थात् लाभ संसार प्राप्ति का लाभ कराने
समवाओ। समवाय ४1 सूत्र - १
६ / सू. १३० )
'ण तित्ते, ण कडुए, ण कसाए ।' (आयारो । अ. ५ / उ 'कसाए पयगुए किच्चा ।' (आयारो / अ. ८ / उ. ६ / सू. १०५ )
'अप्पेगे पलियंतेसि··· बाला कसायवयणेहिं । । ' ( सूत्रकृतांग / अ. ३ / उ. १ / गा. १५ )
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