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प्राक्कथन 'कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन' साध्वी श्री हेमप्रज्ञाजी का देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर द्वारा पी-एच.डी. की उपाधि के निमित्त स्वीकृत एक महत्त्वपूर्ण अधिनिबन्ध है। साध्वीश्री को ज्ञान और चरित्र; श्रद्धा और निष्ठा; सम्यक्त्व और सहिष्णुता का जो रिक्थ (उत्तराधिकार में प्राप्त धन) मरुधर-ज्योति साध्वीश्री मणिप्रभाजी तथा उनकी दिव्यावदानी गुरुवर्या परम तपस्विनी साध्वी श्री विचक्षणश्रीजी में-से छन कर मिला है, वह एक दुर्लभ निधि है। तितिक्षा का जो अलौकिक धन विचक्षणश्रीजी को सहज सुलभ था, उसने न मालूम कितनों को उपकृत किया है और कितनों के जीवन को अपूर्व दिशादृष्टि दी है। मृत्यु को अमृतत्व में रूपान्तरित करने का जो अपूर्व रसायन उनके व्यक्तित्व और उनकी महत्तम प्रज्ञा में प्रकट हुआ था, वह वैसा/उतना आज के संहनन में होना चमत्कार के अलावा और क्या कहलायेगा? इतनी सोढव्यता, इतनी महान् साधना, इतनी विलक्षण तपश्चर्या कि यम को भी नतशीश होना पड़ा, विपदाओं और संकटों को भी घुटने टेकने पड़े - प्रणम्य है। वस्तुतः उनका व्यक्तित्व कषाय-जय का सर्वोत्तम उदाहरण है; इसीलिए प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध अपने-आप ही महत्त्वपूर्ण बन गया है। क्या एक कषाय-जयी के विराट् व्यक्तित्व की शीतल वरद छाँव में कषाय को ज़र्रा-ज़र्रा समझना और उसके आगमोक्त स्वरूप को सफलतापूर्वक प्रतिपादित करना स्वयं में एक महान् उपलब्धि नहीं है?
___मुझे प्रसन्नता है कि साध्वीश्री हेमप्रज्ञाजी ने अपने दायित्व का अप्रमत्त सावधान निर्वाह किया है और कषाय के तकनीकी स्वरूप को विस्तार से विवेचित करने में सफलता प्राप्त की है।
प्राकृत-ग्रन्थ पंचसंग्रह (अधि.-१, गाथा-१०९) में कषाय के स्वरूप को इस तरह स्पष्ट किया गया है- सुहदुक्खं बहुसस्सं कम्मक्खित्तं कसेइ जीवस्स। संसार गदीमेरं तेणो कसाओ ति णं विति।। - जो क्रोध इत्यादि जीव के सुख-दुःख रूप बहुविध धान्य को उत्पन्न करने वाले कर्मरूप खेत का कर्षण करते हैं अर्थात् उसे जोतते हैं और जिनके लिए संसार की चारों गतियाँ सरहदी या मेंढ हैं; वे कषाय हैं।
प्रमुख कषायें हैं : क्रोध, मान, माया, लोभ ; जिनकी तीव्रताओं और मन्दताओं को ले कर अनेकानेक सूक्ष्म भेदोपभेद किये गये हैं। जैन शास्त्रों में कषाय रागद्वेष की जो केमिस्ट्री (रसायन-शास्त्र) वर्णित है; उसके स्वरूप की जो गहन समीक्षा हुई है, वैसी अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। जैनाचार्यों ने कषाय को खोजने और उसे रेशे-रेशे जानने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उन्होंने इसके बहुवर्णी संजाल के हर पहलू की समीक्षा की है और इस विघ्न को हराने में स्वच्छ, स्वस्थ और अमोघ रणनीति अपनायी है।
__ मुझे विश्वास है साध्वीश्री का यह पुरुषार्थ कषाय-संबन्धी खोज़-परम्परा को आगे बढ़ायेगा और उन अनुसंधानकर्ताओं के मार्ग को प्रशस्त करेगा, जो इस सूत्र को आगे बढ़ाने के लिए उत्कण्ठित हैं।
डॉ. नेमीचन्द जैन इन्दौर : ६ अप्रैल १९९८
-संपादक 'तीर्थंकर'
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