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कर्मबन्धों की विविधता एवं विचित्रता ९
को उक्त कर्मबन्ध को बदलने, भोग कर क्षय करने, रूपान्तर करने तथा उसके उदय को शान्त करने के लिए पुरुषार्थ की प्रेरणा है। १ ...
बन्धों की विचित्रता और जाल से सावधान फिर भी बन्धों का जाल इतना विचित्र है कि इनके जाल से अनभिज्ञ सामान्य मनुष्य तो बच ही नहीं पाता। कभी-कभी विशिष्ट शास्त्राभ्यासी आगमवेत्ता साधक
भी इन कर्मों के बन्ध के चक्कर में आ जाते हैं। वे साधक आचारांग की इन सूक्तियों . पर ध्यान दें-"आरम्भों से उपरत ही कर्मों का क्षय करता है। जो धर्मविद् एवं सरल हैं, वे इस आरम्भ (हिंसा) से उत्पन्न दुःख को जानकर उसे छोड़ते हैं। विविध विषयों में निर्वेद-विरतिभाव को प्राप्त कर लोकैषणा मत करो जिसके यह लोकैषणा नहीं है, उनके अन्य पापप्रवृत्तियाँ कैसे हो सकती है।''२
बड़े-बड़े उच्च साधक धर्म-प्रभावना के नाम पर अथवा अपने गुरुओं अथवा अपने विशिष्ट चमत्कार या सिद्धि के नाम पर सहस्रों व्यक्तियों की भीड़ जुटा लेते हैं। "साथ ही जो श्रमण माहनों की व्यर्थ निन्दा करते हैं, चाहे वे उनसे (बाह्यरूप से) मैत्री रखते या पापकर्मों को निःशेष करने के लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र से युक्त हों, तो भी उनका वह (कार्य) परलोक को बिगाड़ने के लिए है; क्योंकि परपरिवाद नामक पापकर्म का बन्ध वे सहज में ही कर बैठते हैं।" सूत्रकृतांग की इस उक्ति पर ध्यान दें।३ .
इस प्रकार के आडम्बरों और प्रसिद्धियों की महत्वाकांक्षा के पीछे कितना समय, शक्ति, बुद्धि तथा धन खर्च करना पड़ता है ? यह भी विचारणीय है। कर्मबन्धों का प्रतिसमय बंधने का जो नियम है, तदनुसार उस कर्मबन्ध में रागभाव की तीव्रता होने से वे कर्मबन्ध बहुत हीजटिल और अपरिवर्तनीय बन जाया करते
स तथ्य की ओर साधकों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए कर्मविज्ञान मर्मज्ञों ने १. देखें-कर्मविज्ञान खण्ड ८ में-कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ १, २.
शीर्षक लेखा २. आरंभज दुक्खमिणं ति णच्चा पलियं चयंति।-आचारांग श्रु. १, अ. ४, उ. ३ दिडेहिं निव्वेयं गच्छेज्जा, न लोगस्सणं चरे, एत्थोवरए तं सोसमाणे, अयं संधीति अदक्खु।'
-आचा. १/५/२४ जस्स नत्यि इमा जाइ, अण्णा तस्स कओ सिया?
-आचारांग १/४/३ ३. """"जे खल समणं वा माहणं वा परिभासेइ मित्ति मन्नंति, आगमित्ता णाणं. दसणं' चरितं पावाणं कम्माणं अकरणयाए से खलु परलोग-पलिमंथत्ताए
-सूत्रकृतांग श्रु. २, अ.७
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