Book Title: Kalpit Itihas se Savdhan
Author(s): Bhuvansundarvijay, Jaysundarvijay, Kapurchand Jain
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 15
________________ शास्त्रों में और उनके भाषान्तर में इन महाशय ने अनेक स्थलपर उनकी मान्यता के अनुकूल परिवर्तन किये हैं तथा जी चाहा मनमाना अर्थ किया है, फिर भी पूर्वाचार्यों को झूठा करते हुए वे "शास्त्रोद्धार मीमांसा" मामक पुस्तक में लिखते हैं कि xxxश्री जैन धर्म प्रचारार्थ श्री महावीर स्वामीजी के निर्वाण के 1242 वर्ष में शैलांगाचार्य ने आचारांग और सूयगडांग की टीका बनाई, 1590 वर्ष पीछे अभयदेवसूरि ने स्थानांग से विपाक पर्यन्त 9 अंग की टोका बनाई, इसके बाद मलयगिरि आचार्य ने राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, पनवणा, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, व्यवहार और नंदीजी इन 7 सूत्र को टीका बनाई, चन्द्रसूरिजी ने निरयावली का पंचक की टीका बनाई, ऐसे ही अभयवेवसूरि के शिष्य मल्लधारी हेमचन्द्राचार्य ने अनुयोनद्वार की टीका बनाई, क्षेमकीर्तिजी ने बृहत्कल्प को टीका को, शांतिसूरिजी ने श्री उत्तराध्ययनजी की. वृत्ति-टीका-भाष्य-चूणिका-नियुक्ति वगैरह सहित सविस्तार बनाया। इन टीकाकारों ने अनेक स्थान मूल सूत्र की अपेक्षा रहित व वर्तमान में स्वतः की प्रवृत्ति को पुष्ट करने जैसे मनः कल्पित अर्थ भर दिये।xxx .. . स्थानकवासी महा पण्डित श्रीमान् रतनलाल जी डोशी ( शैलाना वाले ) ने “जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा-खंड-१" नामक पुस्तक में चारण मुनियों का नन्दीश्वर प्रादि द्वीप में तीर्थयात्रा हेतु जाने को सैर-सपाटा बताया है। यथा xxx हमारे विचार से [ चारणमुनिका ] वहां जाने का मुख्य कारण नंदन वन की सैर करने का ही हो सकता है, क्योंकि यह भी एक छमस्थता की पलटती हुई चम्बल विचार धारा का परिणाम है।xxx ....... प्राचीन प्राचार्यों के प्रति प्रश्रद्धा व्यक्त करते हुए स्थानकवासी समाज के कर्मधार प्राचार्य हस्तीमल जी "जैनधर्म का मौलिक इतिहास" में लिखते हैं कि

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