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[ जवाहर-किरणावली
जीवों का बलिदान तक करके शांति प्राप्त करना चाहते हैं। दुःश्वविपाक सूत्र देखने से पता चलता है कि कुछ लोग तो अपने लड़के का होम करके भी शांति प्राप्त करना चाहते थे। कुछ लोग आज भी पशुबलि, यहाँ तक कि नरबलि में शांति बतलाते हैं । इस प्रकार शांति के नाम पर न जाने कितनी उपाधियाँ खड़ी कर दी गई हैं । लेकिन गणधरों ने एक ही वाक्य में वास्तविक शांति का सच्चा चित्र अंकित कर दिया है
संती संतिकरे लोए । नरमेध करने वालों ने नरमेध में ही शांति मान रक्खी है। लेकिन नरमेध से क्या कभी संसार में शांति हो सकती है ? मारने वाला और मरने वाला-दोनों ही मनुष्य हैं। मारने वाला शक्ति चाहता है तो क्या मरने वाले को शांति की अभिलाषा नहीं है ? फिर उसे अशांति पहुँचा कर शांति की आशा करना कितनी मूर्खतापूर्ण बात है !
नरमेध करने वाले से पूछा जाय कि तू ईश्वर के नाम पर दूसरे मनुष्य का बध करता है तो क्या ईश्वर तेरा ही है ? ईश्वर मरने वाला का नहीं है ? अगर मरने वाले से पूछा जाय कि हम ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए तेरा बलिदान करना चाहते हैं तो वह क्या उत्तर देगा ? क्या वह बलि चढ़ना पसंद करेगा? क्या वह स्वीकार करेगा कि जो इस प्रकार की बलि लेकर प्रसन्न होता है वह ईश्वर है ? और इस बलि का विधान जिसमें किया गया है वह क्या शास्त्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com