Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 18
________________ जनविद्या इसमें प्रकृति के एक नहीं अनेक दृश्यवर्णन हियहारी हैं। प्रकृति के दृश्यों का कवि पुष्पदंत ने सजीव एवं गत्यात्मक चित्रण किया है। वसंत आदि ऋतुओं का वर्णन प्रभावक बन पड़ा है। शब्दालंकार एवं अर्थालंकार का प्रचुर प्रयोग प्रशस्य है। ___इस प्रकार सम्पूर्ण पुराण अनेक सामाजिक, राजनीतिक बातों का एक विश्वकोष है। 1 ग्रंथान्त में पुष्पदंत कहते हैं कि इस रचना में प्रकृत के लक्षण, समस्त नीति, छंद, अलंकार, रस, तत्त्वार्थ-निर्णय सब कुछ समाविष्ट हैं । गायकुमारचरिउ (नागकुमारचरित) ___ यह प्रबन्धकाव्य पुष्पदंत की दूसरी संरचना है। नौ सन्धियों के इस काव्य में श्रुतपंचमी का माहात्म्य बतलाने के लिए नागकुमार का चरित वर्णित है। मान्यखेट में भरत मंत्री के पुत्र नन्न के उपाश्रय में पुष्पदंत ने 'णायकुमारचरिउ' का प्रणयन किया था । कहते हैं कि महोदधि के गुणवर्म और शोभन नामक दो शिष्यों ने प्रार्थना की कि आप पंचमी-फल की रचना कीजिए । महामात्य नन्न ने भी उसे सुनने की इच्छा प्रकट की और फिर नाइल्ल और शील भट्ट ने भी आग्रह किया। 3 इस काव्य की कथा रोमाण्टिक है । इस चरित के नायक नागकुमार एक राजपुत्र हैं किन्तु सौतेले भ्राता श्रीधर के विद्वेषवश वह अपने पिता द्वारा निर्वासित नाना प्रदेशों में भ्रमण करते हैं तथा अपने शौर्य, नैपुण्य व कला-चातुर्यादि द्वारा अनेक राजाओं व राजपुरुषों को प्रभावित करते हैं। बड़े-बड़े योद्धानों को अपनी सेवा में लेते हैं तथा अनेक राजकन्याओं से विवाह करते हैं। अंततः पिता द्वारा आमंत्रित किये जाने पर पुनः राजधानी को लौटते हैं और राज्याभिषिक्त होते हैं। जीवन के अंतिम चरण में संसार से विरक्त होकर मुनिदीक्षा लेकर मोक्ष-वधू का वरण करते हैं। इस कथा-काव्य की कतिपय घटनाएँ और प्रसंग तत्कालीन समाज का यथार्थ चित्रण करते हैं । 33 पौराणिक काव्यरूढ़ियों का प्रयोग भी बखूबी हुआ है। वस्तुतः यह जीवनचरित जैनकाव्य-प्रणेताओं को प्रियकर रहा है। कविश्री पुष्पदंत ने ग्रंथारम्भ में सरस्वती-वंदना प्रसंग में काव्य-तत्त्वों का सुन्दर रूप में विवेचन किया है ।34 कवि इतिवृत्त, वस्तु-व्यापार-वर्णन और भावाभिव्यञ्जन में भी सफल हुआ है । राजगृह के चित्रण में उत्प्रेक्षा की लड़ी द्रष्टव्य है35 - जोयइ व कमलसरलोयणेहि, पच्चइ व पवरणहल्लियवरणेहि । ल्हिक्कइ व ललियवल्लीहरेहि, उल्लसइ व बहुजिरणवरहरेहिं । वरिणयउ व विसमवम्महसरेहि, कणइ व रयपारावयसेरेहि। परिहइ व सपरिहापरियणोर, पंगुरइ व सियपायारचीर । णं घरसिहरग्गहि सग्गु छिवइ, एं चंदप्रमियधाराउ पियइ । कुंकुमछडएं णं रइहि रंगु, गावइ दक्खालिय-सुहपसंगु । विरइयमोत्तियरंगावलीहि, जं भूसिउ गं हारावलोहि । चिहं धरिय गं पंचवण्णु, चउवण्णजणेण वि भइरवण्णु । काव्य में प्रकृति-चित्रण परम्परामुक्त तथा भाषा अलंकृत एवं मनोरम है। यह काव्य अनेक अलौकिक घटनाओं से, स्वप्नज्ञान एवं शकुन-विचार से अनुप्राणित है ।

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