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जनविद्या
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यथार्थ में बिम्ब मानस-प्रत्यक्ष शब्द-चित्र होता है । आई० ए० रिचर्ड्स के अनुसार "बिम्ब एक दृश्यचित्र, संवेदना की एक अनुकृति, एक विचार, एक मानसिक घटना, एक अलंकार अथवा दो भिन्न अनुभूतियों के तनाव से बनी एक भावस्थिति - कुछ भी हो सकता है।"
यह निश्चित है कि बिम्ब प्रकृति से ही संश्लिष्ट होता है। प्रतीक तो मूर्त और अमूर्त दोनों तरह के हो सकते हैं, किन्तु बिम्ब मूर्त ही होता है। बिम्ब की प्रेषणीयता सन्दर्भ से जुड़ी रहती है। बिना किसी सन्दर्भ के वह अंकित नहीं होता। किन्तु अलंकार के लिए सन्दर्भ आवश्यक नहीं होता । पाश्चात्य काव्य-समीक्षा में यह स्पष्ट है कि काव्यात्मक बिम्ब में बिम्ब और रूपक का प्रयोग प्रायः समान अर्थ में किया जाता है। प्रतीक चरित्रों की योजना मुख्य रूप से रूपक काव्यों में लक्षित होती है। जैन साहित्य में “मदनपराजय" एक सफल रूपक काव्य है। वास्तव में बिम्ब का सम्बन्ध काव्यगत सन्दर्भ और रूपविधान दोनों से है। बिम्ब के माध्यम से ही हमारी संवेदना ऐन्द्रिय ज्ञान को संचेतना प्रदान करती है। अर्थालंकार के सादृश्यमूलक तथा विरोधमूलक दोनों वर्गों को बिम्ब का निर्माण क्षेत्र माना गया है। यदि हम अलंकारों के बाह्य सादृश्य को छोड़कर प्राभ्यन्तर प्रवाहसाम्य को लक्ष में लें तो वह बिम्ब रचना के अधिक निकट होगा। लेविस ने ठीक ही कहा है - "कवि का बिम्ब-विधान न्यूनाधिक रूप में एक ऐन्द्रिय शब्दचित्र है। यह एक सीमा तक रूपात्मक (सादृश्य विधायक) होने के साथ सन्दर्भगत मानवीय संवेग से व्याप्त होता है।" किन्तु पाठकों के लिए विशेष रूप से भाव या आवेग से संयुक्त अनुभूतिगम्य होता है । अतः अलंकार (बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव) जैसा होने पर भी बिम्ब उससे भिन्न है। यथार्थ में प्राचीन तथा नवीन कवियों की दृष्टि में बहुत बड़ा अन्तर है । डा० केदारनाथ सिंह के शब्दों में - "ौपम्य-विधान के क्षेत्र में भी उनकी दृष्टि प्रायः बहिर्मुखी ही रही। इस बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण उस काल की दृष्टि वस्तुओं के आभ्यन्तर प्रभावसाम्य की ओर न जा सकी। इसके विपरीत स्वच्छन्दतावादी कवियों की दृष्टि वस्तुओं के बाह्य आकार से मुड़कर प्रकृति और मानव के सूक्ष्म सम्बन्धों पर टिक गयी। परिणामतः प्रस्तुत विधान के क्षेत्र में "मानवीकरण" और "अन्योक्ति पद्धति" का विकास हुआ । इस विकास को हम मध्यकालीन अलंकार-विधान से आधुनिक बिम्ब-विधान का प्रथम ऐतिहासिक अन्तर मान सकते हैं।"
डा० सिंह का उक्त कथन हिन्दी की मध्यकालीन कविता के सम्बन्ध में सच हो सकता है, किन्तु अपभ्रंश-काव्य के सम्बन्ध में यह सत्य नहीं है। यद्यपि अपभ्रंश के काव्यों में भी शास्त्रीयता (क्लैसिकल) का पालन तथा सामन्तयुगीन प्रवृत्तियों का स्पष्ट रूप से चित्रण किया गया है, किन्तु महाकवि स्वयंभू, पुष्पदंत, वीर, धनपाल आदि कवियों के काव्य में संस्कृत के महाकवि कालिदास की भांति उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों के संयोजन से आकलित ऊहा (फैन्सी) के माध्यम से बिम्ब-विधान किया गया है। डा० सिंह का यह कथन उपयुक्त है कि उपमा सबसे अधिक स्वतः स्फूर्त अलंकार है जिसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्मृति और उपचेतन से होता है। अतः बिम्ब में नवीनता का अन्वेषण उपमा की विश्लेषणात्मक प्रकृति में भली-भांति लक्षित होता है। महाकवि