Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 123
________________ " जैन विद्या 117 जो सभी प्रकार के बन्धनों से विहीन है, सभी मलों से रहित निर्मल है, वह देव शिव है । जिस प्रकार कमलिनी के पत्ते पर स्थित पानी की बूंद उससे सर्वथा भिन्न रहती है, उसी प्रकार शिव पाप-पुण्य से सर्वथा भिन्न है, वह इनसे अछूता रहता है । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! शिव ( परमात्मा) के पाप-पुण्य नहीं होते ॥17॥ परमात्मा को हरि, हर, ब्रह्म, शिव भी कहा गया है । उसे मन से, बुद्धि से देखा नहीं जा सकता । सम्पूर्ण शरीर में उसका वास है । गुरु के प्रसाद से उनके दर्शन होते हैं । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! गुरु के प्रसाद से परमात्मा के दर्शन होते हैं ॥18॥ परमात्मा रूप से विहीन अरूपी हैं। उनके रस, गंध, स्पर्श आदि नहीं हैं । जो सद्गुरु हैं, वे भेदविज्ञान के बल से जीव और शरीर को भिन्न करके जानते हैं । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! सद्गुरु परमात्मा को जानते हैं || 19 || जो चैतन्य मूर्ति शुद्धात्मा (त्रैकालिक ध्रुव एक ज्ञायक भाव ) का ध्यान करता है वह निश्चय से परमात्मा है । अन्य सभी व्यवहार है । जो एक समय के लिए भी अपनी शुद्धात्मा के ध्यान में स्थिर रहता है उसके कर्मरूपी पयाल धग धग करके जल जाता है । अरे श्रानन्द को प्राप्त करनेवाले ! आत्मध्यानी के कर्म पयाल की भाँति धग धग करके जल जाते हैं ||20|| जाप जपने से, बहुत तप करने से भी कर्म का नाश नहीं होता । एक समय के लिए भी प्राणी अपनी आत्मा का अनुभव करता है तो कर्म प्राणी को चतुर्गति नहीं दे सकता नन्द को प्राप्त करनेवाले ! ऐसे प्राणी को कर्म चतुर्गति में नहीं घुमा सकता ||21|| है । हे जीव ! अहंकार ( मैं और मेरापना अर्थात् ग्रात्मबुद्धि) छोड़ कर तू अपने आप का अनुभव कर । निर्विकल्प सहज समाधि में आत्मा का अनुभव होता है जो जिनशासन का सार है । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! निज आत्मा का अनुभव ही जिनेन्द्र भगवान् के शासन का सार है ॥22॥ आत्मा संयम है, शील है, दर्शन-ज्ञान आदि गुणों से युक्त है । श्रात्मा ही व्रत, तप, संयम, देव, गुरु और मोक्ष मार्ग है । अरे श्रानन्द को प्राप्त करनेवाले ! आत्मा ही मोक्षमार्ग है 12311 परमात्मा का ध्यान करना ही सच्चा व्यवहार है । इसके सिवाय अन्य सम्यक्त्व तथा आत्मज्ञान से परे हैं, जिस प्रकार दाने के बिना छिलके का ग्रहण करना है । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! दाने के बिना छिलके का ग्रहण करना है ||24|| सम्यकूष्टि ( श्रात्मज्ञानी) यह जानता है कि मूल वस्तु का कोई जनक नहीं है । इसलिए न कोई माता-पिता है, न कुल और न जाति है । अतः इन पर उसकी राग-द्वेष की दृष्टि नहीं होती । सद्गुरु अपने स्वभाव का अनुसरण करता है । अरे श्रानन्द को प्राप्त करनवाले ! सद्गुरु अपने स्वभाव में रहता है || 25

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